शुक्रवार, १६ मार्च, २०१२

गीत हे श्रीहरीचे


!! एक !!
जन्मलाशी बंधनात ! व्यर्थ भ्रमी संसारात !
गुरुकृपा अवचित ! प्रगटली सामोरी !!१!!
उजळले आत्मज्ञान ! संसार हा झाला क्षीण !
जन्म होवोनि पावन ! स्वरुप हे कळो आले !!२!!
नसे यमाची यातना ! नासे जन्मीची वासना !
बोध प्रगटला नाना ! गुरुराजा हा उदार !!३!!
दत्ता लागतसे पायी ! होऊ कसे उतराई !
भवतीरासी हा नेई ! नमस्कारी वेळोवेळा !!४!!

!! दोन !!
नाम आवडीने घ्यावे ! तोषवावे पांडुरंगा !!१!!
नामा नाही काळवेळ ! तळमळ दूर जाय !!२!!
नाही बाधे यमपाश ! जगदिश रक्षितसे !!३!!
दत्ता म्हणे नाम घेऊ ! उगे राहु ब्रह्मपदी !!४!!
प्रेमे रंगलो नामात ! विसरलो जनरीत !

!! तीन !!
लज्जा सोडोनि नाचत ! हसती हे सारे जन !!१!!
सरे देहाची कल्पना ! नुरे मनीची वासना !
नष्ट संसार भ्रमणा ! जागे होवोनी सत्वर !!२!!
दत्ता म्हणे नाम घेई ! बैसोनिया एक्या ठाई !
करी बारे लवलाही ! परमार्थ साधावया !!३!!


बुधवार, २८ सप्टेंबर, २०११

शस्त्र और शास्त्र के महारथी परशुराम.....

       

हमहितुम्हहिसरिबरिकस नाथा/ कहहुन कहां चरन कहंमाथा / राम मात्र लघु नाम हमारा । परसुसहित बड नाम तोहारा..। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम  को  नमन करते हों, उन शस्त्रधारी और शास्त्रज्ञ भगवान परशुराम की महिमा का वर्णन शब्दों की सीमा में संभव नहीं। वे योग, वेद और नीति में निष्णात थे, तंत्रकर्मतथा ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी पारंगत थे, यानी जीवन और अध्यात्म की हर विधा के महारथी।

विष्णु के छठे अवतार परशुराम पशुपति का तप कर परशु धारी बने और उन्होंने शस्त्र का प्रयोग कुप्रवृत्तियोंका दमन करने के लिए किया। कुछ लोग कहते हैं, परशुराम ने जाति विशेष का सदैव विरोध किया, लेकिन यह तार्किक सत्य नहीं। तथ्य तो यह है कि संहार और निर्माण, दोनों में कुशल परशुराम जाति नहीं, अपितु अवगुण विरोधी थे। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में जो खल दंड करहुंनहिंतोरा/भ्रष्ट होय श्रुति मारगमोरा की परंपरा का ही उन्होंने भलीभांति पालन किया। परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की पुनस्र्थापना के लिए शस्त्र उठाए। उनका उद्देश्य जाति विशेष का विनाश करना नहीं था। यदि ऐसा होता, तो वे केवल हैहयवंश को समूल नष्ट न करते। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु का अभिनंदन किया, तो कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन करने में भी परशुराम ने संकोच नहीं किया। कर्ण को श्राप उन्होंने इसलिए नहीं दिया कि कुंतीपुत्रकिसी विशिष्ट जाति से संबंध रखते हैं, वरन् असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। कौशल्यापुत्र राम और देवकीनंदनकृष्ण से अगाध स्नेह रखने वाले परशुराम ने गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म पितामह) को न सिर्फ युद्धकला में प्रशिक्षित किया, बल्कि यह कहकर आशीष भी दी कि संसार में किसी गुरु को ऐसा शिष्य पुन:कभी प्राप्त न होगा!

पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को ही त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। इसी दिन, यानी वैशाख शुक्ल तृतीया को सरस्वती नदी के तट पर निवास करने वाले ऋषि जमदग्नितथा माता रेणुका के घर प्रदोषकालमें जन्मे थे परशुराम।

परशुराम के क्रोध की चर्चा बार-बार होती है, लेकिन आक्रोश के कारणों की खोज बहुत कम हुई है। परशुराम ने प्रतिकार स्वरूप हैहयवंशके कार्तवीर्यअर्जुन की वंश-बेल का 21बार विनाश किया था, क्योंकि कामधेनु गाय का हरण करने के लिए अर्जुनपुत्रोंने ऋषि जमदग्निकी हत्या कर दी थी। भगवान दत्तात्रेयकी कृपा से हजार भुजाएं प्राप्त करने वाला कार्तवीर्यअर्जुन दंभ से लबालब भरा था। उसके लिए विप्रवधजैसे खेल था, जिसका दंड परशुराम ने उसे दिया। ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि सहस्त्रबाहुने परशुराम के कुल का 21बार अपमान किया था। परशुराम के लिए पिता की हत्या का समाचार प्रलयातीतथा। उनके लिए ऋषि जमदग्निकेवल पिता ही नहीं, ईश्वर भी थे। इतिहास प्रमाण है कि परशुराम ने गंधर्वो के राजा चित्ररथपर आकर्षित हुई मां रेणुका का पिता का आदेश मिलने पर वध कर दिया था। जमदग्निने पितृ आज्ञा का विरोध कर रहे पुत्रों रुक्मवान,सुखेण,वसु तथा विश्वानसको जड होने का श्राप दिया, लेकिन बाद में परशुराम के अनुरोध पर उन्होंने दयावशपत्नी और पुत्रों को पुनर्जीवित कर दिया।

पशुपति भक्त परशुराम ने श्रीराम पर भी क्रोध इसलिए व्यक्त किया, क्योंकि अयोध्या नरेश ने शिव धनुष तोड दिया था। वाल्मीकि रामायण के बालकांडमें संदर्भ है कि भगवान परशुराम ने वैष्णव धनुष पर शर-संधान करने के लिए श्रीराम को कहा। जब वे इसमें सफल हुए, तब परशुराम ने भी समझ लिया कि विष्णु ने श्रीरामस्वरूपधारण किया है।

परशुराम के क्रोध का सामना तो गणपति को भी करना पडा था। मंगलमूर्तिने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया था, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार किया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंतकहलाए।

अश्वत्थामा,हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूपपरशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है कि वे चिरजीवी हैं। श्रीमद्भागवत महापुराणमें वर्णित है, अश्वत्थामा बलिव्र्यासोहनूमांश्चविभीषण:। कृप: परशुरामश्चसप्तैतेचिरजीविन:।

ऐसे समय में, जब शास्त्र की महिमा को पुन:मान्यता दिलाने की आवश्यकता है और शस्त्र का निरर्थक प्रयोग बढ चला है, भगवान परशुराम से प्रेरणा लेकर संतुलन बनाने की आवश्यकता है, ताकि मानव मात्र का कल्याण हो सके और मानवता त्राहि-त्राहि न करे।

संत कबीर-रचा वंचितों का वेद....

      

कबीर भारतीय चिंतन-परंपरा के पुरस्कर्ताइन अर्थो में हैं, क्योंकि वे मृत्यु का सहर्ष स्वागत करते हैं। आत्म, परम-आत्म और अध्यात्म में कबीर का इतना अगाध विश्वास है कि वे दैहिक मृत्यु को भी नगण्य मानते हैं। उनका ऐसा विश्वास इसलिए भी है, क्योंकि दैहिक मृत्यु के बाद पूर्ण एवं परम आत्मा से मिलन संभव होगा :

जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद।

कब मरिहोंकब पायहुं,पूरन परमानंद॥

बिना मृत्यु के परमात्मा से मिलन संभव नहीं है। यहां मरने का एक अर्थ अहंकार का मरना, दंभ को, मैं पन को मारना भी है।

कबीर ने काल और महाकाल के भय से मानव को मुक्त कर जीवन की महत्ता सिद्ध की है। निर्धन, दमित, उपेक्षित, दलित व्यक्ति को भी कबीर धनवान नहीं, बल्कि आत्मवानबनाते हैं और वह स्वयं को धनवानों से भी अधिक धनवान तथा महिमावान समझता है। सामाजिक गैर-बराबरी, जाति-पांति की विषमता से लडने की आंतरिक, वास्तविक क्षमताओं से कबीर व्यक्ति को जोडते हैं। उसमें आत्मा, आत्म-शक्ति जगाते हैं।

जीवन के प्रति अगाध विश्वासों से कबीर हमें भर देते हैं, ताकि अपसंस्कृति एवं अमानवीयताके विपरीत व्यक्ति अध्यात्म सत्ता से जुडे और आत्मीय-मानवीय विश्व का सु-नागरिक सिद्ध हो।

सच है-परमात्मा ही पूर्ण है। योग-ध्यान-आत्मा द्वारा उससे संयुक्त होकर ही शांति, आनंद और आत्म-तुष्टि का अनुभव किया जा सकता है। यही कारण है कि कबीर उस पूर्ण, परमात्मा से जुडने के मार्ग दिखाते हैं। परमात्मा के पूर्ण होने की वैदिक अवधारणा के आधार पर वे कहते हैं :

पूरे सोंपरिचय भया,सब दु:ख मेल्यादूरी।

निर्मल कीन्हींआत्मा, ताथैंसदा हुजूरी॥

सब प्रकार की हिंसा, हत्या, दु:ख-क्लेश से मुक्त होने और परमात्मा के हर समय, हर कहीं खुले दर्शन करने का एक ही मार्ग है-आत्मा की निर्मलता। निर्मल आत्मा से परमात्मा तक पहुंचाने का मार्ग दिखाने वाले मसीहा हैं कबीर।

कबीर विद्वेषियोंने उन पर कई आक्षेप किए हैं। उन्हें वेद-विरोधी व नारी निंदक तक कहा गया है, जबकि ये दोनों बातें व्यर्थ भ्रमित करने वाली हैं। वेद का अर्थ ज्ञान है, आत्मिक-आध्यात्मिक ज्ञान है, जो वेदनात्मकताएवं संवेदनात्मकताका आधार है। कबीर ज्ञानमार्गीमाने जाते हैं। उनका मार्ग भक्ति व कर्म से अधिक एवं मुखर ज्ञान का मार्ग है। कबीर यदि ज्ञान (वेद) से भी विरोध रखने वाले माने जाएंगे, तब उनके चिंतन का और कौन सा आधार है? कबीर की एक साखी संतों में प्रसिद्ध है।

वे कहते हैं :

वेद हमारा भेद है, हम वेदन के माहिं।

जिन वेदन में हम रहें, वेदौंजानतनाहिं॥

कह सकते हैं कि कबीर ने वंचितों का वेद रचा। नारी और शूद्र्र को वेद पाठ से वंचित कर दिए जाने पर कबीर ने स्वयं अपना वेद रचा, जो कि वंचकों के वेद से भिन्न है और इस अपने वेद में वे लोग स्वयं भी स्थित हैं। उनकी पीडाएं, आकांक्षाएं, आह्लाद-विषाद भी इसमें समाहित हैं।

इसी भांति नारी-निंदक मानी जाने वाली साखियोंको विद्वानों ने ठीक से अब तक समझने का प्रयास नहीं किया। जो कुछ पूर्व विद्वानों ने मान लिया, उसी को बडे-बडे विश्वविद्यालयों के स्व-नामधन्य विभागाध्यक्ष तक दोहराते जा रहे हैं। कबीर ग्रंथावली में कामी नर को अंग के अंतर्गत संकलित हैं उक्त साखियां,जो स्पष्ट ही कामी नर को संबोधित हैं, नारी को नहीं। पुरुष सत्तात्मकसमाज के मूल्य-पक्षधर नारी संबंधी कबीर के विचारों को अनदेखा क्यों कर रहे हैं? यही नहीं, वे तो कंचन एवं कामिनी के प्रति कहे गए कबीर के शब्दों को सारी नारी जाति पर आरोपित कर रहे हैं।

कामिनी नारी यदि लपटों-भरी आग है, तो कामी नर को उससे बचने की हिदायत कबीर दे रहे हैं, नहीं तो-अन्यत्र साखियोंमें कबीर वीर व सती नारी के प्रति खुले कंठ से पक्षधरता व्यक्त करते हैं। वे इस बात पर भी व्यंग्य करते हैं कि जहां समाज सती नारी को पूरी देह ढकने के लिए उपयुक्त वस्त्र प्रदान नहीं करता, वहीं वेश्या खासा पहनती है। ऐसे में यह प्रमाणित हो जाता है कि सती, साधु, सत्य और ज्ञान के पक्षधर संत कबीर ने ज्ञान को परमात्मा के रूप में स्थापित किया है।

सबकी प्रगति में अपनी उन्नति .....


जहानरसीमेहता, सरदार पटेल, महात्मा गांधी का जन्म हुआ, उसी गुजरात में 1825ई. को टंकारा ग्राम में ब्राह्मणकुल में कर्षण तिवारी और यशोदा बाई के आंगन में एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम मूलशंकररखा गया। एक शैव भक्त जमींदार परिवार में जन्म लेने वाले मूलशंकरके बचपन में कई घटनाएं हुईं। शिवरात्रि को मूर्तिपूजा से अनास्था, चाचा और बहन की मौत ने इनकी जिंदगी पर गहरा असर डाला। वे दयानंद के रूप में संन्यासी बन गए। गुरु विरजानदसे उन्होंने व्याकरण, योग, धर्म-अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त किया। मथुरा में शिक्षा पूरी कर दयानंद का सारा जीवन वेद, दर्शन, धर्म, भाषा, देश, स्वतंत्रता, समाज की बदतर हालात को सुधारने, समाज में फैले अंधविश्वासों, पाखंडोंऔर बुराइयों को खत्म करने में समर्पित हो गया।

महर्षि दयानंद के समय में शिक्षा, दलितों और स्त्रियों की हालात अच्छी नहीं थी। बाल विवाह, सती प्रथा, जन्मगत जाति-पाति और ऊंच-नीच के भेदभाव से समाज बिखर रहा था। धर्म, अध्यात्म, योग और कर्मकंाडके नाम पर तंत्र-मंत्र, जादू-टोने और भूत-प्रेत के टोटके किए जाते थे। भारत की धरती अंग्रेजी दासताकी जंजीरों में जकडी हुई थी। ऐसे में स्वामी दयानंद ने देश व समाज में छाए अंधकार को खत्म कर देश-समाज को नई दिशा दी।

दयानंद अंग्रेजी पराधीनता और समाज की दयनीय दशा को सुधारने के लिए योद्धा की तरह मुकाबला कर रहे थे, वहीं किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की बिगडी हुई दशा को उबारने में लगे रहे। 1857के पहले स्वाधीनता संग्राम से लेकर महाप्रयाण 1883तक वे अंग्रेजी शासन से छुटकारा दिलाने और आजादी के रणबाकुरोंको स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करने में लगे रहे। विभिन्न संप्रदायों के महंत, अंग्रेजों के पिट्ठू राजा और नवाब इनके विरोधी बन गए थे। कहा जाता है कि उन्हेकई बार जहर देने का प्रयास भी किया गया।

1875में दयानंद ने मुंबई की काकडबाडीमें आर्य समाज की स्थापना की, जिसका मकसद मानवता का कल्याण था। उन्होंने आर्य समाज के नियम में कहा कि किसी भी इंसान को अपने विकास से ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए, बल्कि सबकी प्रगति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश सहित चालीस पुस्तकें लिखकर समाज और देश को नई दिशा दी।

संगीत के शिखर

     
सम्राट अकबर ने एक बार तानसेनसे कहा, तुम्हारे जैसा गायक इस पृथ्वी पर दूसरा नहींहै,ना ही कभी होगा। तानसेनने जवाब दिया, हुजूर, मैं तो अपने गुरु स्वामी हरिदासके सामने तो कण-मात्र भी नहीं। अकबर बोले, अपने गुरु को लेकर आओ, मैं उनका संगीत सुनना चाहता हूं। मैं मुंहमांगा धन दूंगा। तानसेनने कहा, हुजूर, न तो उन्हें संगीत सुनाने को राजी किया जा सकता है, न कुछ लेने को। एक ही उपाय है, जब वे गा रहे हों, तब आप छिपकर सुन लें..। अकबर तुरंत तैयार हो गए। कडकडाती ठंडी रात में अकबर हरिदासकी झोपडी के बाहर वृक्ष के पीछे छिप गए। तडके तीन बजे स्वामी हरिदासने गाना शुरू किया। गाना खत्म होने पर अकबर की आंखों में आंसू थे।

हरिदासपेड-पौधों और पशु-पक्षियों को संगीत सुनाया करते थे। मान्यता है कि जब वे भक्ति-पद गाते, तो राधा-कृष्ण रासलीला के लिए आ जाते थे।

कोलग्राम,अलीगढ में जन्मे हरिदासजी संन्यास-दीक्षा लेकर वृंदावन आ गए थे। निधिवनमें रहकर वे ठाकुर जी की सेवा करने लगे। बाद में सेवा-कार्य अपने अनुज को सौंप कर वे नहीं लौटे। काव्य और शास्त्रीय संगीत के महान आचार्य स्वामी हरिदासने सखी संप्रदाय की नींव रखी थी। उन्होंने राधा-कृष्ण की भक्ति में पगाकाव्य लिखा। उन्हें शास्त्रीय संगीत में ठुमरी का प्रवर्तक माना जाता है। केलिमालएवं अष्टदशसिद्धांत उनके ग्रंथ हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन के द्वैत, अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत आदि मतों के सम्मिलनसे इच्छाद्वैतसिद्धांत का प्रतिपादन किया।

सोमवार, २६ सप्टेंबर, २०११

भयानक वास्तव!!!



मित्रांनो.... आपण संसारात रमतो, पैसा कमवतो. आपल्याला असे वाटते की, पैशाच्या बळावर आपण काहीही करु शकतो.. कोणालाही विकत घेऊ शकतो... पण तो आपला व्यर्थ अहंकार असतो... मग असेच दिवस सरत जातात व आपण काळाकडे ओढला जातो.. बालपण संपुन तरुणपण कधी येऊन गेले ते कळत नाही.. म्हातारपण आल्यावर मात्र आपल्याला मृत्युची भीती वाटु लागते... मृत्यु आपल्याला नको असतो... मनातल्या अनेक इच्छा अपुर्ण असतात.. त्या आपल्याला पुर्ण करायच्या असतात.. ययाति राजाची गोष्ट सर्वांना माहिती असेलच.. तरुणपणाच्या इच्छा भोगण्यासाठी त्याने आपले म्हातारपण त्याच्या तरुण मुलाला दिले व त्याचे तरुणपण त्याने घेतले... तरीही तो अतृप्तच राहिला... असेच आपले होते... मग मृत्युची घरघर सुरु होते.. काळ आपल्या दरवाज्यात येऊन उभा रहातो... त्यावेळी आपली स्थिति ही अत्यंत केविलवाणी होते... त्यातुन वाचण्यासाठी तो प्रत्येकाकडे आशाळभुत नजरेने पहात असतो.. कधी कोणीतरी आपल्याला वाचविल असे त्याला वाटते... मृत्युची पकड आणखीनच घट्ट होते.. मग त्याची वाचा जाते... तोंडाने तो काहीतरी सांगण्याचा प्रयत्न करतो.. पण कोणालाच त्याची भाषा समजत नाही... नंतर त्याची दृष्टी जाते... सारे नातलग जवळ असुनही त्याला या भयानक मृत्युच्या तडाख्यातुन कोणीही सोडवु शकत नाही... सारे चित्र भयावह असेच असते... जी पत्नी त्याच्यासोबत जीवनभर साथ देते ती पण त्याला या मृत्युच्या तावडीतुन सोडवु शकत नाही... संत तुकोबाराय त्यांच्या अभंगात सांगतात तो अभंग वाचतांना मन खरोखरच सुन्न होते... भगवंताची भक्ति सर्वश्रेष्ठ का आहे ते कळुन येते व त्याचप्रमाणे संसाराचे मिथ्यत्व कळुन येते..

नको नको मना गुंतु मायाजळी।
काळ आला जवळी ग्रासावया।।
काळाची ही उडी पडेल बा जेव्हा।
सोडविना तेंव्हा मायबाप।।
सोडविना तुला देशीचा चौधरी।
आणिक सोयरी भली भली।।
सोडविना तुला पाठीची बहिण।
शेजेची कामिन दुर होय।।
तुका म्हणे तुला सोडविना कोणी।
एका चक्रपाणी वाचुनीया।।
खरचं आहे.. या भयानक मृत्युपासुन आपल्याला आपले धनगोत पैसा अडका, यापैकी कोणीही सोडवु शकत नाही.. आपल्याला यातुन सोडवणारा एकच आहे.. तो म्हणजे भगवान श्रीकृष्ण, पांडुरंग...
मित्रांनो, खरोखर अजुनही वेळ गेली नाही.. भगवंताची सेवा करा.. त्याचे नामस्मरण करा.. तोच आपल्या तरणारा आहे... श्रीहरी... श्रीहरी..

रविवार, २५ सप्टेंबर, २०११

अलौकिक शक्तीचा विकास

प्रत्येकाजवळ ईश्वराने एक अलौकिक असा गुण दिला आहे. तो गुण कधी कधी आपल्या नकळत मित्रमंडळीत किंवा, समाजात वावरतांना प्रगट होत असतो. तो गुण आपल्याला वेळीच ओळखता आला व त्यात आपल्याला प्रगती करता आली तर काय बहार होईल.. हे सांगणे नलगे.. बऱ्याच वेळेस आपण त्या गुणांकडे दुर्लक्षच करतो.. या सध्याच्या धावपळीच्या काळात तो गुण झाकला जातो... व तो गुण आपल्याकडे एके काळी होता असे आपण नकळत बोलुनही जातो.. माझा एक मित्र आहे.. तो मिमिक्री छान करतो. हिरो- हिरॉईनचे आवाज काढुन तो मित्रमंडळींचे करमणुक करतो... मित्रमंडळीही त्याला हसुन दाद देतात... त्याच्याजवळ एवढा मोठा अलौकिक गुण असुनही, त्याकडे त्याचे दुर्लक्ष झाले.. त्याने त्या गुणाला जराही महत्व दिले नाही.. त्यामुळे त्याच्या गुणाचे क्षेत्र हे फक्त मित्रमंडळींपुरतेच मर्यादित राहिले.. जर त्याने त्या गुणात आणखी अभ्यास करुन त्यात कल्पनेने भर टाकली असती तर तो आज साऱ्या हिंदुस्थानात चमकला असता... पण त्याने तसे केले नाही. याला कारण म्हणजे त्याच्या त्या ईश्वरदत्त गुणांवर त्याचा स्वतःचाच विश्वास नव्हता.. हल्ली तो फक्त आपल्या मित्रांचेच व्यंगावर बोट ठेऊन त्यांच्या नकला करत दुसऱ्यांना हसवत असतो...
माझा एक दुसरा मित्र आहे.. तो बोलतो छान. इतके छान बोलतो की त्याचे बोलणे ऐकत रहावे असे वाटते.. त्याची एखादी गोष्ट पटवुन देण्याची पद्धत तर माझ्या मनाला भुरळ घालते... तो बोलत असला की मी त्याचा श्रोता बनतो.. अतिशय सुस्वभावी व सालस स्वभावी असा तो माझा मित्र... त्याच्या बोलण्यात एकप्रकारची मोहिनी आहे.. हा त्याचा ईश्वरदत्त गुण.. पण त्याकडे त्याने दुर्लक्षच केले.. जर तो या त्याच्या गुणांविषयी सजग राहिला असता तर तो आज उत्तम वक्ता व उत्तम प्रवचनकार बनला असता... त्याने हा गुण फारच मर्यादित ठेवला... आता तर तो दुसऱ्यांची पाठीमागे निंदा करतो व मित्रांची करमणुक करण्यामध्ये तो आज प्रसिद्ध झाला आहे..
मित्रांनो, प्रत्येकाजवळ काहीना काही ईश्वरदत्त गुण हा असतोच. फक्त तो ओळखुन त्याचा आपण विकास करायला हवा... असा कलागुण वेळीच ओळखुन त्यात स्वप्रयत्नाने भर टाकणारा जीवनात महान होतो यात शंका नाही..
आपल्या गुणांवर आपल्याला प्रेम करता यायला हवे... जो आपल्यातील कलागुणांचा आदर करतो, तोच दुसऱ्याच्या कला गुणांचा आदर करु शकतो..
आपल्या मुलाबाळांमधील कला गुण वेळीच ओळखुन त्यात वाढ होण्यासाठी आपण प्रयत्न केला पाहीजे. कला गुण हा फक्त कलेशीच संबंधीत नसुन प्रत्येक क्षेत्रातील माध्यमाशी  संबंधित आहे. कोण सुरेल गातो, कोण चांगला ताल धरतो, कोण निशाणेबाज असतो.. कोण सुंदर बासरी बाजवतो. कोणाचे वक्तव्य सुंदर असते, तर कोण उत्तम चित्रे काढतो. कोणाला जादुच्या ट्रिक्स येतात, तर कोणी उत्तम पियानो वाजवितो, तर कोणाला क्रिकेट मधली गुगली साधते... तर कोणाला बुद्धिबळ उत्तम खेळता येतो.. इ. इ. वरील उदाहरणे मी नमुन्यादाखल दिली आहेत.. याहुनही असंख्य कलागुणांचे वर्णन करता येईल..
सारांश, प्रत्येकाने आपल्या गुणांचा विकास स्वप्रयत्नाने करावा व आपले गुण ज्या वातावरणात वाढतील त्याच वातावरणात रहाण्याचा प्रयत्न करावा...
ही ईश्वरदत्त देणगी ज्याने त्याने सांभाळावी, जतन करावी, त्यात स्वप्रयत्नाने वाढ करावी, मग बघा तुमच्या जीवनात नंदनवन फुलेल की नाही... तुमचे मन हे अतिशय आनंदी राहील व तुमच्यात एकप्रकारचा जबरदस्त आत्मविश्वास निर्माण होईल.. व तुम्ही खऱ्या अर्थाने जीवन जगु लागाल..
जयहरी! जयहरी!!

बुधवार, २१ सप्टेंबर, २०११

जीवन्मुक्त पुरुषाची लक्षणे-

एक- जो परमार्थदृष्या विश्व आकाशाप्रमाणे मिथ्या मानतो,
दोन- जागृत असुनही व्यवहार करत असतांना जो गाढ निजलेल्या मनुष्या प्रमाणे निर्विकार असतो,
तीन- ज्याचे, सुखाने चेहऱ्यावरील तेज वाढत नाही किंवा दुःखाने चेहऱ्यावरील तेज लोपत नाही व प्राप्त स्थितिमध्ये जो निर्विकार असतो,
चार- जो सुषुप्तिमध्येही जागृत असतो आणि जागृतीचा त्याला गंधही नसतो...ज्ञानी असुनही वासनारहित असतो,
पाच- ज्याचा अहंकार हा सर्वस्वी निमाला असुन त्रिभुवनाची उत्पत्ती आणि लय जो आपल्या आत्मस्वरुपामध्ये आपल्या डोळ्यांच्या उघडझापी प्रमाणे आहेत असे जो पाहतो तो जीवन्मुक्त समजावा..
सहा- ज्याला लोक भीत नाहीत आणि जो लोकांना भीत नाही, जो हर्ष, रागादि विकारांपासुन मुक्त आहे व जो सचित्त असुनही चित्तरहित आहे असा महापुरुष जीवन्मुक्त होय...

      ... डीसिताराम

शुक्रवार, १६ सप्टेंबर, २०११

एक मजेदार साधना....

ही साधना वाटते तितकी सोपी नाही.. कारण तुम्ही मध्येच थांबलात तर पहिल्यापासुन ही साधना करावी लागते... ह्या साधनेने मन हे सुक्ष्म होते.. व स्मरणशक्तीचा अद्भुत विकास होतो...

साधना अशी..

साधकाने खुर्चीवर बसावे.. हातात कागद व पेन घेऊन साधनेला सुरुवात करावी, मोठ्याने उच्चार करत शंभर पासुन उलट अंक मोजत एक पर्यंत यावे व प्रत्येक अंकासोबत कागदावर एक पासुन शंभर पर्यंत अंक लिहित जावे... म्हणजे तुम्ही शंभर बोललात तर कागदावर एक लिहावा... याप्रमाणे... जर मध्येच अडखळलात तर परत पहिल्यापासुन सुरुवात करावी...

काही वेळेस उतरत्या क्रमाने सम अंक म्हणावेत व कागदावर चढत्या क्रमाने सम अंक लिहित जावे... या साधनेने मन हे खुपच सुक्ष्म होते व एकावेळेस अनेक गोष्टी चांगल्या रितिने धारण करण्याची अद्भुत शक्ति येते... मी या शक्तिचा प्रयोग पाहिला आहे... पुण्याला गांधर्व विद्यालयात पंडित सुरेश तळवलकरांचे वादन होते.. त्यांनी एक ताल वादनासाठी निवडला... तोंडाने ते दुसराच ताल म्हणत होते व त्यावर कळस म्हणजे लेहेरा हा दुसऱ्याच तालासाठी होता... सारे प्रेक्षक श्वास रोखुन होते... पण जेव्हा सर्व गोष्टी या समेवर आल्यात त्या वेळी झालेला टाळ्यांचा कडकडाट मी विसरु शकत नाही... अशी अद्भुत शक्ती त्यांच्याजवळ कशी आली होती.... हे मन अतिशय सुक्ष्म करण्याचा परिणाम आहे....

दुसरे उदाहरण माझ्या कॉलेज जीवनातील... एक प्रोफेसर कोणाचेही नाव एकदाच ऐकल्यावर त्यास कधीही नावाने हाक मारत असत... काही वर्षांनी सुद्धा...

तिसरे उदाहरण स्वामी विवेकानंदांचे... अर्थात् सर्वांना माहिती असेलच... स्वामीजी परदेशात असतांना त्यांचा एक सेवक लायब्ररीतुन दररोज एक पुस्तक घऊन जात असे व सायंकाळी ते परत करत असे.. लायब्ररीमनला वाटले की, स्वामीजी पुस्तके काहीच वाचत नसावेत... तसे त्यांनी स्वामीजींना विचारले देखील... त्यावर स्वामीजींनी मागील आठवड्यात वाचलेल्या पुस्तकाचे पान त्यास उघडावयास सांगुन त्यांनी त्या पुस्तकातील उतारेच्या उतारे म्हणुन दाखवले, व इतकेच नाही तर कोणता उतारा कोणत्या पानावर आहे असेही त्यांनी सांगितले... नंतर मात्र तो लायब्रियन स्वामींचा पक्का शिष्य बनला हे सांगावयास नको... हा आहे स्मरणशक्तिचा अद्भुत विलास... ब्रह्मचर्य व साधनांद्वारे बुद्धिचा, स्मरणशक्तीचा असा विकास होतो हे आवर्जुन सांगावयास पाहिजे...

वरील साधना पण अशीच आहे... अर्थात् ही सुरुवातीची प्रायमरी साधना आहे... पण याद्वारे स्मरणशक्तीचा अद्भुत विकास होतो.  मात्र नक्की...
        ....डीसिताराम

रविवार, ११ सप्टेंबर, २०११

प्रकट चिंतनः-

माझा हा जन्म एकच नाही.. यापुर्वी मी अनेक वेळा जन्म घेऊन मृत्यु पावलो आहे.. असंख्य वेळा मी जन्मबंधनात सापडलो आहे.. माझा देह अहंकार पुष्ट करुन मी जगलो आहे...विषय सुखात मी अज्ञानाने लोळत पडलो आहे...काही वेळा क्षुद्र योनीतही मला जन्म घ्यावा लागला.. कधी किटक.. तर कधी पशु पक्ष्यांच्या जन्मात गेलो.... त्या जन्मात मी अनेक दुःखे भोगली.... प्रत्येक जन्मात मी माझ्या मीपणाला जोपासत वाटचाल केली...सोबत संसाराचे वासनामय बीज घेऊन जन्माला येत गेलो.... चांगल्या-वाईट कर्माचे गाठोडे सोबत आणले...कर्माशय प्रत्येक जन्मात वाढवत नेला... आत्मपौढीने जीवन जगत गेलो... हातुन काहीवेळेस दुष्कर्मही घडले.... निरपराध जीवांचा जाणिव पुर्वक उपहास केला.. त्यामुळे या जन्मात अनेक आपत्तींना तोंड देणे भाग पडले. अनेक संकटे दत्त म्हणुन उभे राहीले. पुर्व जन्मांतील काही पुण्याईचा भाग होता म्हणुन या जन्मात ज्ञानार्जन झाले. सद्गुरुंची भेट झाली. संसारभ्रांती कळुन आली.. ज्ञानाने वैराग्य संपन्न होऊन गतजन्मांतील कर्माशये नष्ट करु लागलो.... पांडुरंगाची उपासना घडु लागली... मनावरील वाईट संस्कार विषयी काठिण्य नष्ट होऊ लागले. आता या जन्मातच सर्व कर्माशये व प्राक्तन संपवुन जन्म- मरणाच्या चक्रातुन मुक्त व्हायचे आहे... पुन्हा पुन्हा गर्भवास नको.. नको त्या यातना व नको संसारातील दाहक चटके.... नको वासनांचा प्रवास.... हे प्रभो... मला सर्व अधःपातापासुन सावरण्याचे बळ दे... माझे सर्व कर्माशये नष्ट करण्यासाठी मनास सामर्थ्य दे.... शोकाकुल झालेल्या माझ्या मनास अखंड शांति दे... हे प्रभो... या जन्मात सर्व संसार बंधने तोडुन जीवन्मुक्त होईल असे आत्मज्ञान जागव.... सद्गुरुकृपेने माझा हा जन्म शेवटचा होईल असे कर....

मंगळवार, ६ सप्टेंबर, २०११

एक प्रभावी साधना...

मित्रांनो, ही एक प्रभावी अशी साधना आहे.... या साधनेने केवळ अंतर्मनच जागृत होत नाही तर मन हे अति सुक्ष्म असे होते.... प्रत्येकाने करावी अशी ही साधना आहे.... आस्तिक असो वा नास्तिक, काहीच हरकत नाही... पण ही साधना केल्याने मनाचा विकास होतो.... मन हे अतिशय सुक्ष्म झाल्यामुळे त्यास कठिणातला कठिण विषय सहजच आकलन होतो..... स्मरण शक्तिचा विकास होतो.... अध्यात्मिक भाषेत सांगावयाचे झाल्यास मेधाशक्ति विकसित पावते..... जर ही साधना दीर्घकाळ केली तर स्मरणशक्तीचा अद्भुत असा विकास होतो.... मनाचे साधे साधे संकल्प पुर्ण होतात.....चेहऱ्यावर एक प्रकारची आभा झळकते...... अशा व्यक्तिकडे एक प्रकारचे चुंबकत्व तयार होऊन ती व्यक्ति जीवनात यशस्वी होते.....तरुणांनी केल्यास त्यांच्या आत्मशक्तिचा विकास होऊन त्यांच्यात वास करत असलेले गुण हे विकसित पावतील....अवगुण हे नष्ट होऊ लागतील.... मन हे बलवान होईल.... त्यांना कोठलाही अवघड विषय समजल्यामुळे त्यांचा बुद्धिचा विकास होईल....
प्रथम देवाजवळ धुप किंवा अगरबत्ती लावावी व साधकाने सुखासनात बसावे. डोळे बंद करुन घ्यावे व मोठ्या आत्मविश्वासाने या साधनेस सुरुवात करावी...या साधनेत मंत्र वगैरे म्हणण्याची वा प्राणायाम करण्याची काहीच गरज नाही..... श्वासोश्वास मंद ठेवावा...मनातील भुतकाळ वा भविष्य काळातील विचार दुर ठेवावे... मनास वर्तमानकाळात गुंतवुन ठेवा... प्रथम हे अवघड वाटेल... कारण आपल्या मनास वर्तमानात ठेवण्यास कधीच वळण लावलेले नाही... त्यामुळे थोडे कठिण जाईल....असो... श्वासोश्वास मंद झालेला आहे.... आता श्वास घेतांना मन त्या श्वासाबरोबर आत जाऊ द्या.... आपला श्वास शरीरात कोठपर्यंत जातो ते पाहा.....आपला श्वास खोलवर जात नसल्याचा आपल्याला अनुभव येईल... याचा अर्थ आपण आतापर्यंत अपुर्ण श्वास घेत आलेलो आहोत.... मित्रांनो.... या अपुर्ण श्वासामुळे आपल्या फुफ्फुसातील अब्जावधी कोश निष्क्रिय अवस्थेत असतात.... त्यामुळे दमा, खोकला, सर्दी, शिंका यांसारखे श्वासाच्या निगडित असणारे रोगांची आपण शिकार होत असतो.
श्वास सोडा व त्याबरोबर मनाला पण श्वासाच्या बरोबर बाहेर येऊ द्या..... परत सावकाश श्वास घ्या व मनाला पण आत येऊ द्या..... आता मात्र श्वास हा शरीरात आणखी खोलवर येऊ द्या... त्यावेळी लक्षात ठेवा की तुमचे पोट थोडेसे प्रसरण होऊ द्या... आचा अर्थ श्वास हा छातीत न भरता तो पोटात भरा.... आपण चुकीची श्वसन क्रिया करत असतो... साधारणपणे श्वासोश्वास करत असतांना आपण तो श्वास छातीत भरत असतो... हे चुकीचे आहे... कधीही श्वासोश्वास करत असतांना श्वास हा पोटातच भरला गेला पाहिजे..... असो....परत श्वास बाहेर सोडा... पुन्हा घ्या.... प्रत्येक वेळी हा श्वासोश्वास पोटातच घ्या... व सोडतांना पोट स्वाभाविकपणे आत घ्या.... छातीचा पिंजरा हा खालीवर व्हायला नको.....
प्रत्येक वेळी श्वास हा शरीरात खोलवर होत असल्याची जाणिव मनाला होऊ द्या....मग हा श्वासोश्वास बेंबीपर्यंत घेण्याचा सराव करा.... पहिले चारपाच दिवस नाही जमणार... पण सवयीने आपोआपच होऊ लागेल... काही सांप्रदायात या गोष्टी शिकवल्या जातात पण हे काहीतरी गुढ आहे असे सांगत ते आपल्या मनात भ्रम निर्माण करतात.... तुम्हाला गुरु असल्याशिवाय अशा गोष्टी शिकता येणार नाहीत वगैरे सांगुन ते आणखीनच हा विषय गहन करतात.... त्यामुळे आपल्या मनाचा गोंधळ उडतो.... असो...
सुमारे दहा ते पंधरा मिनिटे ही साधना व्हायला हवी.... मन हे वर्तमानातच ठेवा व प्रत्येक श्वासाबरोबर मनाला प्रवाहित करा... श्वास हा बेंबीपर्यंत न्या.... व तसाच तो सोडा.... हळुहळु श्वास हा संथ होत असल्याचा अनुभव येईल....
या साधनेची फलश्रुति महान आहे... या साधनेने मेंदुतील अतिरिक्त उर्जा ही नाहीशी होते... मेंदुस खऱ्या अर्थाने शांती मिळते... डोके थंड रहाते.... डोळे हे तेजस्वी होतात... निद्रानाशावर तर ही साधना अमृतासमान आहे.... मला तर या साधनेने हुकमी झोप प्राप्त झाली आहे..... कधीही मी अतिशय गाढ निद्रेचा अनुभव घेऊ शकतो....ज्याचे मन सतत भुतकाळाचा व भविष्यकालाचा विचार करत असते त्यास मन हे वर्तमान काळातच असण्याचा अनुभव येईल व तो आपोआपच आनंदी राहील... त्याला मनातील विकार छळणार नाहीत.... हे मी माझ्या अनुभवाने सांगतो..... मन हे जास्त करुन भविष्याची चिंता करते..... व त्यामुळे मन सतत अस्वस्थ असते.... माझे काय होईल.... मुलाबाळांचे कसे होईल.....या विचाराने आपण चिंतीत असतो व त्यामुळे आपण आजचा वर्तमानतील आनंद हरवुन बसतो.... माझा एक ओळखीचा मित्र आहे... जेव्हा आम्ही एकत्र चहा पितो त्यावेळी याच्या मनात नेहमी घरादाराचेच विषय असतात..... बायको जेवली असेल काय.... मुले झोपली असतील काय.... उद्याचे काय होईल..... यामुळे त्याला चहा पिण्याचा आनंद कधीच मिळत नाही..... प्यायचा म्हणुन पितो...... जेवायचे म्हणुन जेवतो व जगायचे म्हणुन जगतो... याला काय अर्थ आहे... हे माझ्या मित्रांनी यावर विचार करा... आपल्या हातात आत्ताचा काळ आहे... भुतकाळ तर कधीच निघुन गेलेला असतो... व भविष्यकाळ हा यायचा असतो.... आपल्या हातात फक्त चालु वर्तमान काळच असतो.... तो देखील क्षण रुपाने.... आला क्षण गेला क्षण...व क्षण आपल्यासाठी थांबत नाही.... असे असतांना का उद्याच्या विचाराने आपण अस्वस्थ व्हायचे.... शिवाय उद्याचा काळ हा आपण आत्ताचा क्षण कशाप्रकारे व्यतित केला यावरच अवलंबुन आहे... नाही का...असो....
ही साधना तुम्ही करा व तिचा अनुभव घ्या व तुमच्या मित्रांना पण सांगा..... या साधनेचा प्रचार करा त्याचे तुम्हाला नक्किच चांगले फळ मिळेल... तुमच्या मित्रांना या आपल्या गृपमधे सामिल करुन घ्या.....
तुमच्या लाडक्या मुलांनाही ही साधना करायला सांगा... कारण त्यांच्या व्यक्तिमत्वाच्या विकासात आई- वडलांचा मोठा सहभाग असतो......या साधनेची आणखी विस्तृत फलश्रुति पुढच्या भागात सांगितली जाईल.... तोपर्यंत मी आपला निरोप घेतो... जयहरि... जयहरि...... ( क्रमशः )
द्वारा.......डीसिताराम

शुक्रवार, २ सप्टेंबर, २०११

आरोग्याचा श्रीगणेशा....

मंगलमूर्ती व यशाचा मंत्र

 कोणतेही काम यशस्वी व्हावे, यासाठी सुरवातीला श्री गणेशाची प्रार्थना करण्याची पद्धत असते. श्री गणेश ही मूलाधारचक्राची देवता होय. मूळ आणि आधार या दोन शब्दांपासून मूलाधार शब्द तयार झालेला आहे. कोणत्याही गोष्टीचे मूळ पक्के असले, आधार भक्कम असला, की ती तडीला नेणे शक्‍य असते. अर्थातच मूळ रोवण्यासाठी, मजबूत आधारासाठी पृथ्वी महाभूतासारखे दुसरे तत्त्व नाही. म्हणूनच मूलाधार चक्रात पृथ्वीतत्त्वाचे अस्तित्व असते.

कोणतेही काम यशस्वी व्हावे, यासाठी सुरवातीला श्री गणेशाची प्रार्थना करण्याची पद्धत असते. श्री गणेश ही मूलाधारचक्राची देवता होय. मूळ आणि आधार या दोन शब्दांपासून मूलाधार शब्द तयार झालेला आहे. कोणत्याही गोष्टीचे मूळ पक्के असले, आधार भक्कम असला की ती तडीला नेणे शक्‍य असते. अर्थातच मूळ रोवण्यासाठी, मजबूत आधारासाठी पृथ्वी महाभूतासारखे दुसरे तत्त्व नाही. म्हणूनच मूलाधार चक्रात पृथ्वीतत्त्वाचे अस्तित्व असते.

आपले शरीर पंचमहाभूतांपासून बनलेले आहे हे आपण जाणतोच. पृथ्वीमहाभूताच्या गुणांना साजेसे असे जे काही भाव आहेत. उदा. नखे, हाडे, दात, मांसधातू, त्वचा, मळ, केस, स्नायू, घ्राणेंद्रिय यांना "पार्थिव' शरीरभाव म्हटले जाते. कोणत्याही गोष्टीला आकार देण्याचे कामही पृथ्वी महाभूताचे असते. त्यामुळे शरीरातील अवयवांवर उदा. फुप्फुसे, यकृत, गर्भाशय वगैरेंवरसुद्धा पृथ्वी महाभूताचा प्रभाव असतो. आणि या सर्व शरीरभावांवर मूलाधारचक्राचे नियंत्रण असते. याशिवाय मेरुदंडाच्या टोकाचा खालचा भाग, कंबरेचे हाड, गुप्तेंद्रिये, गर्भाशय, अंडाशय, मलविसर्जनासाठीचे गुद, मलाशय हे भाग मूलाधाराच्या आधिपत्याखाली येतात. मूलाधार चक्रात दोष उत्पन्न झाला तर या अवयवांच्या कार्यात असंतुलन उत्पन्न होऊ शकते. त्याचप्रमाणे या सर्व अवयवांचे आरोग्य व्यवस्थित राहण्यासाठी प्रयत्न केले नाहीत, तर त्यामुळे मूलाधार चक्र असंतुलित होऊ शकते.

गणेशोत्सवाच्या निमित्ताने मूलाधार चक्राशी संबंधित अवयवांचे आरोग्य नीट राहण्यासाठी काय प्रयत्न केले पाहिजेत, हे आपण पाहू या. ज्याच्या आधारे शरीर ताठपणे उभे राहते, त्यात हाडे मुख्य असतात. हाडांमध्येसुद्धा मेरुदंड व कंबरेचे हाड हे अधिकच महत्त्वाचे असतात. मेरुदंडातील मणक्‍यांची झीज झाली किंवा त्यांच्यातील अंतर कमी-जास्ती झाले, तर त्याचा संपूर्ण शरीरावर परिणाम होतो. कंबरेचे हाड झिजले किंवा कंबरेचे हाड व मांडीचे हाड यांच्या सांध्याच्या ठिकाणी झीज झाली, तर उठणे, बसणे, चालणे वगैरे सर्व क्रियांवर मर्यादा येतात, वेदनाही खूप होतात. आयुर्वेदात हाडांवर पृथ्वी, वायू व अग्नी या महाभूतांचा प्रभाव असतो असे सांगितले आहे. दोषांचा विचार करता, हाडे हे वाताचे स्थान असते. म्हणूनच हाडांचे आरोग्य नीट ठेवायचे असेल तर वातशामक आणि पृथ्वीमहाभूतप्रधान अन्नपदार्थ, औषधी द्रव्यांची योजना करावी लागते. त्या दृष्टीने आहारात गहू, खारीक, बदाम, डिंक, दूध, लोणी, तूप यांचा समावेश असणे चांगले असते. अंगाला नियमित तेल लावणे, हेसुद्धा हाडांच्या, सांध्यांच्या मजबूतीसाठी उत्तम असते. शरीरात उष्णता अति प्रमाणात वाढणेसुद्धा हाडांसाठी चांगले नसते. अंगात ताप मुरला किंवा तापाची कसर शरीरात शिल्लक राहिली तर त्यामुळे सांधे दुखू लागतात. उष्णता नियंत्रणात ठेवण्यासाठी पादाभ्यंग, प्रवाळपंचामृत किंवा पित्तशामक व पृथ्वीप्रधान मोती-शंख भस्मापासून बनविलेले कॅल्सिसॅनसारखी औषधे घेणे फायदेशीर ठरते. याउलट उष्णता वाढविणाऱ्या कॅल्शियमच्या गोळ्या घेण्याने हाडातील अग्नी महाभूत बिघडण्याची शक्‍यता अधिक असते. केस, दात, नखे हे बाकीचे शरीरभाव हाडांशी संबंधित असतात. त्यामुळे हाडांची नीट काळजी घेतली की या सर्व गोष्टी निरोगी राहतात.

मांसधातू हा दुसरा पृथ्वीमहाभूतप्रधान शरीरभाव होय. पृथ्वीतत्त्व जसे स्थिर, दृढ, मजबूत असते, तसेच संपन्न मांसधातू, स्नायू, शरीराला स्थिरता, दृढता देण्याचे काम करत असतो. गहू, बदाम, दूध, लोणी, पंचामृत वगैरे आहारद्रव्ये, कवचबीज, शतावरी, अश्‍वगंधा वगैरे औषधद्रव्ये मांसधातूपोषणासाठी उत्तम असतात. त्वचा हा मांसधातूचा उपधातूच असल्याने, या सर्व गोष्टी त्वचेलाही पोषक असतात.

जडत्वाची, स्थिरत्वाची आवश्‍यकता
स्त्रियांच्या बाबतीत गर्भाशय, बीजाशय (ओव्हरी) हे प्रजननसंस्थेतील महत्त्वाचे अवयव मूलाधारचक्राशी संबंधित असतात. आयुर्वेदात गर्भाशयाला जमिनीची उपमा दिलेली आहे. जमिनीत पेरलेल्या बीजापासून जसा वृक्ष तयार होतो, त्याचप्रमाणे गर्भाशयात गर्भाचा विकास होऊन बालक तयार होते. गर्भाशयाचा आकार जरी लहान असला तरी त्याच्यात प्रसरण पावण्याची क्षमता खूप मोठी असते. बाळाचे वाढणारे वजन पेलवण्याची क्षमताही खूप असते. यावरून गर्भाशयाचा आणि पृथ्वीमहाभूताचा संबंधही स्पष्ट होतो. दोन बीजाशयांतून प्रत्येक महिन्याला एक एक बीजांड तयार होत असते. म्हणूनच बीजाशयाचे कामही पृथ्वीमहाभूताच्या संतुलनाशी संबंधित असते. बीजांड तयारच न होणे, वेळेवर तयार न होता उशिरा तयार होणे, गर्भधारणेसाठी सक्षम नसणे या तक्रारी सध्या वाढताना दिसत आहेत.

यावर पृथ्वीमहाभूताची शुद्धी, मूलाधारचक्राचे संतुलन यांसारख्या उपचारांचा उत्कृष्ट उपयोग होताना दिसतो.
मलमूत्रविसर्जनाची क्रियासुद्धा मूलाधारचक्राशी संबंधित असते. मल ज्या ठिकाणी साठतो ते मलाशय, जेथून बाहेर पडतो तो गुदभाग, तसेच मूत्राशय व मूत्रेंद्रिय या सर्वांवर पृथ्वी महाभूताचा प्रभाव असतो. बद्धकोष्ठ, निरनिराळे मूत्रविकार यांचा संबंध मूलाधार चक्राशी संबंधित असू शकतो. म्हणूनच पोट साफ ठेवणे, मूत्रप्रवृत्ती साफ असण्याकडे लक्ष ठेवणे, हे मूलाधाराच्या संतुलनासाठी आवश्‍यक असते.

पृथ्वी महाभूताचा "जड' हाही एक गुण असतो. अमुक मर्यादेपर्यंत जडत्वाची (ग्राउंडिंग), स्थिरत्वाची आवश्‍यकता असते हे खरे; पण या चक्रात दोष उत्पन्न झाला तर आळस, अनुत्साह, कंटाळा वगैरे मानसिक दोषही उत्पन्न होऊ शकतात. याचीच दुसरी बाजू म्हणजे अति चंचलपणा, अस्थिरता, एकाग्रतेचा अभाव वगैरे दोषही उत्पन्न होऊ शकतात.

शरीराचा आकार, शरीरावयवांचा आकार, हासुद्धा पृथ्वी महाभूताशी संबंधित असतो. हृदयाचा आकार वाढणे, मूत्राशय, पित्ताशयासारखे अवयव सुकणे, आकसणे, गाठी येणे यांसारखे दोषही पृथ्वी महाभूतातील बिघाडाचे निदर्शक असतात.

ज्ञानेश्‍वरांचा समत्वयोग......

मनुष्य हा निसर्गच आहे, हे विधान फारच व्यापक व त्यामुळे मोघम झाले. मनुष्याच्या शरीराचे कोणते घटक नैसर्गिक आहेत, असे विचारणे हे अधिक टोकदार होईल. प्राचीन भारतातील सांख्य दर्शनाने दिलेले उत्तर बहुतेक वैदिक दर्शनांनी विशेषतः वेदांताने ग्राह्य धरले. सांख्याची प्रकृती किंवा स्वभाव हा निसर्गच आहे. ज्या तत्त्वामुळे मनुष्य इतर प्राण्यांपेक्षा वेगळा मानला गेला, ते तत्त्व म्हणजे बुद्धीसुद्धा सांख्यमते जड प्रकृतीचाच अत्यंत तरल व सूक्ष्म असा आविष्कार आहे. ज्याला सांख्य पुरुष म्हणतात ते केवल चैतन्यरूप असलेले तत्त्वच काय ते अजड चेतनरूप आहे. मात्र, सांख्य दर्शनाने जड प्रकृती व चेतन पुरुष यांच्यात द्वैत मानले. ही दोन स्वतंत्र तत्त्वे अनादी असल्याचे सांगितले. अद्वैत वेदांत दर्शनाने सांख्याची सृष्टीच्या रचनेबद्दलची उपपत्ती "पंचीकरण' या नावाने जवळपास जशीच्या तशी स्वीकारली. सांख्यांनी अनंत पुरुषांचे अस्तित्व मान्य करून तेथेही आपल्या बहुतत्त्ववादाच्या पुरस्काराला वेदांत्यांनी एकाच आत्मचेतनेच्या अस्तित्वाला मान्यता दिली. त्यालाच ब्रह्म असेही म्हणण्यात येते. प्रत्यक्ष व्यवहारात दिसून येणारे अनेक जीवात्मे एकमेवाद्वितीय परब्रह्मच आहेत. त्यांची बहुविधता किंवा नानात्व अज्ञानमूलक व भ्रमात्मक आहे. किंबहुना भ्रामक जीवदशा हीच मुळी आत्म्याने स्वतःची देहादी प्राकृतिक जड पदार्थांशी एकरूपता मानल्यामुळे उद्‌भवली आहे. ही दृष्टिगोचर बहुविधता अजड चेतन आत्मतत्त्वाच्या प्राकृतिक देहादी जड पदार्थावर करण्यात आलेल्या अध्यासामुळे भासमान होते. या जड पदार्थांमध्ये गुणात्मक भेद करता येणार नाही. (जड ते जडच चेतन ते चेतनच) पण परिमाणात्मक भेद नक्कीच करता येईल. बोटांची नखे किंवा डोक्‍यावरील केस यांना होत असलेल्या संवेदनांची उदाहरणार्थ जिभेला होणाऱ्या संवेदनेशी तुलना केली तर हा भेद समजून येईल. केशनखादी कमी संवेदनशील शरीरघटक जसे जड; तसेच जीभसुद्धा जड किंवा भौतिकच; पण जीभ हे जडद्रव्याचे पंचभूतांचे अधिक तरल (ठशषळपशव) रूप.

भगवद्‌गीतेमध्ये या क्रमश्रेष्ठत्वाचा विचार करण्यात आलेला दिसतो. "इंद्रियेभ्य परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।' येथे इंद्रिये, मन आणि बुद्धी यांच्यातील वेगळेपणच सांगितले नसून इंद्रियांहून मन व मनाहून बुद्धी श्रेष्ठ असल्याचेही सुचवले आहे. आता गीतेला मान्य असलेला वेदांताच्या मुशीत ओतून घेतलेला सांख्य सिद्धांत विचारात घेतला तर हे चढते श्रेष्ठत्व जड द्रव्यातील आहे व ते त्याच्या तरलपणामुळे ठरले, असे म्हणता येते; परंतु बुद्धीच्या पलीकडील व बुद्धीपेक्षा श्रेष्ठ असा जो "सः' किंवा "तो' आहे तो नेमका कोण?

गीतेचे सर्व भाष्यकार हा "तो' म्हणजे चेतन, शुद्ध, बुद्ध, निर्गुण आत्मा मानतात. तो देह, इंद्रिये, मन, बुद्धी या जड पदार्थांपेक्षा वेगळा आहे. या अन्वयार्थाला एकमेव अपवाद आहे तो रामानुजाचार्यांच्या भाष्याचा. प्रस्तुत श्‍लोकाच्या अगोदरचा संदर्भ लक्षात घेऊन रामानुज "सः' (तो) म्हणजे आत्मा असे न मानता काम असा अर्थ लावतात. त्यांच्या मते मानवाची इच्छा किंवा वासना इतकी प्रबळ असते, की ती बुद्धीलाही दाद देत नाही. त्यामुळे कामाशी संघर्ष करणे फार अवघड आहे. कामाचा संबंध मताशी वा भावनांशी, तर विचारांचा संबंध बुद्धीशी लावला जातो. विचार आणि भावना यांच्यातील द्वंद्व मानवाच्या अंतरात सतत चालू असते. मन आणि बुद्धी म्हणजेच भावना आणि विचार यांचा ताळमेळ. म्हणजेच योग, असे ज्ञानेश्‍वर सांगतात.

"अर्जुना समत्व चित्राचे। तेचि सार जाण योगाचे। जेथ मना आणि बुद्धीचे। ऐक्‍य आथी'
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श्री गणेशाचे अवतार

श्री गणेशाचे अवतार दोन प्रकारचे आहेत. एक आविर्भाव म्हणजे स्वेच्छेने प्रकट होऊन विघ्ननाशनादी आवश्य कार्य साधून लगेच अंतर्धान पावणारा, अर्थात अगदी थोडा वेळ असणारा, वक्रतुंडासारखा अवतार आणि दुसरा अवतार म्हणजे अधिक काळ राहणारा अर्थात विशिष्ट कार्यासाठीच प्रकट व्हावयाचे, पण त्या अवताराबरोबर अनेक प्रकारच्या भक्तानुग्रही लीलाही करायच्या असा मयूरेश, विनायक इत्यादी अवतार होत. अर्थात दोन्ही प्रकारच्या अवतारांमध्ये भक्तजनांचे तपश्चर्यण व कामना, संकल्प सिध्यर्थ व अभक्तजन व असुरांना शासन वगैरे कारणाकरताच श्री गणेशांनी अवतार घेतले. येथे विशेषत्वाने लक्षात ठेवण्यासारखी गोष्ट म्हणजे श्री गणेशाने कोठल्याही असुराचा वध केला नाही, तर त्याच्या मदाचा नाश करून त्याला आपल्या अंकित ठेवले. त्या त्या असुरामुळे समाजात बळावत चाललेल्या मदप्रवृत्तीचा नाश केला, हे खालील अवतारकार्यावरून दिसून येईल. त्या त्या असुराच्या नावावरून आपल्या उन्नतीच्या आड येणाऱ्या आपल्यातील त्या त्या मदप्रवृत्तीचा नाश करावा, अशी अप्रत्यक्ष रीतीने श्री गणेशांनी आपणास शिकवण दिली, हे आपण लक्षात ठेवावयास हवे.
अवतार :
१. वक्रतुंड, २. एकदंत, ३. गजानन,
४. लंबोदर, ५. विकट, ६. विघ्नराज,
७. महोदर, ८. धूम्रवर्ण
कार्य :
मत्सरासुराचा नाश ’ मदासुराचा नाश
लोभासुराचा नाश ’ क्रोधासुराचा नाश
कामासुराचा नाश ’ दंभासुराचा नाश
मोहासुराचा नाश ’ अहं असुराचा नाश.
शिकवण :
आपल्यातील मत्सराचा नाश करणे.
आपल्यातील मदाचा नाश करणे.
आपल्यातील लोभाचा नाश करणे.
आपल्यातील क्रोधाचा नाश करणे.
आपल्यातील कामवृत्तीचा नाश करणे.
आपल्यातील दंभाचा नाश करणे.
आपल्यातील मोहाचा नाश करणे.
आपल्यातील अहंपणाचा नाश करणे.
वरील अवताराखेरीज श्री गणेशांनी अनेक अवतार घेतले. ज्ञानारी आणि शुभ्रसेन राजा यांचे अनुक्रमे सुबोध आणि नरकेसरी हे दोन गणेशभक्त पुत्र होते, पण ज्ञानारी आणि शुभ्रसेन हे दोघे गणेशद्वेष्टे होते. त्यामुळे त्यांनी आपल्या दोन्ही गणेशभक्त मुलांचा अत्यंत छळ केला. श्री गणेशांनी अवतार घेऊन आपल्या बालभक्ताचे तसेच दुसरा एक बालभक्त बल्लाळ या सर्व बालभक्तांचे संरक्षण करून त्यांच्या पित्यांना शासन केल्याचा पुराणात उल्लेख आहे. त्याचप्रमाणे आपल्या भक्तांचे रक्षण करण्याकरिता व असुरांचा नाश करण्यासाठी कारणपरत्वे श्री गणेशांनी इतरही अनेक अवतार धारण केल्याचे पुराण दाखले आहेत.
दुसऱ्या प्रकारच्या अवतारामध्ये श्री गणेशांनी -
१. विनायकनामक अवतार घेऊन नरान्तक व देवान्तक यांचा नाश केला.
२. मयूरेशनामक अवतार घेऊन सिंधुसुराचा नाश केला.
३. श्री गणेशनामक अवतार घेऊन सिंदुरासुराचा नाश केला.
४. कपिलनामक अवतार घेऊन कमलासुराचा नाश केला.
५. वरदमूर्तीनामक अवतार घेऊन तामिस्रासुराचा नाश केला.
६. धूम्रकेतूनामक अवतार घेऊन धुमासुराचा नाश केला.
अशा प्रकारे अनेक अवतार घेऊन असुरांपासून लोकांचे रक्षण केले. सूर आणि असुर हे पौराणिक अलंकारिक शब्द असून सूर याचा अर्थ संवादी म्हणजे आत्मतत्त्वाशी निगडित असलेले व स्वानंदानुभव भोगणारे. असुर म्हणजे, अ म्हणजे नाही, सूर म्हणजे योग्य जे आत्मानुभवाच्या आनंदाच्या आड येणारे ते, म्हणजे कामासुर, मोहासुर इत्यादी. आपले षड्विकार हे आपल्या आनंदाच्या आड का येतात याचा विचार करता ज्या वेळेला या गुणांमध्ये मद उत्पन्न होतो तोच मद आत्मानंद नाश करणारा आहे. म्हणजे मदरहित हे गुण मानवजातीला अनुकूल आहेत. म्हणून त्यांचा नाश न करता त्याच्यापासून उत्पन्न होणाऱ्या मदाचा नाश करणे हाच असुर विनाश होय. त्याच्याकरिता जी स्थिर बुद्धी ती बुद्धिदाता गणेश अथवा गणपती होय.

                                                    ....डीसिताराम

परदेशातील गणेशस्थाने

नेपाळ : नेपाळमधील गणपती हा नृत्यगणपती असून तो लाल रंगाचा आहे. या नृत्यगणपतीभोवती चार विनायक असतात. रक्तविनायक, चंद्रविनायक, सिद्धिविनायक व अशोक विनायक अशा पंच विनायक गणपतींचे एक देऊळ आहे. त्याशिवाय काठमांडूमध्ये काही गणेश मंदिरे आहेत. िझपी, ताडदू, चंगनारायण, सिद्धिविनायकाचे थानकोट अशा नावांची ही गणपती मंदिरे आहेत. नेपाळमध्ये गणेशाच्या मूर्तीत हेरंब गणपती अत्यंत लोकप्रिय आहे. या मूर्तीला नेहमी पाच मस्तके असलेली दिसतात. नृत्यमुद्रेतील काही गणेशमूर्तीच्या मस्तकावर शेषाने फणा उभारलेला दिसतो.
म्यानमार (ब्रह्मदेश) : म्यानमारच्या सखल भागातील सुपीक प्रदेशात मोन लोक राहत होते. ते हीनयानी बौद्ध होते. देवदेवतांचे ते कट्टर शत्रू होते. त्यामुळे येथे प्राचीन बौद्ध मंदिराचे रक्षक म्हणून गणेशासह अनेक देवतांची स्थापना केलेली दिसते. येथील व्यापारी जनसमुदायात गणपती हा विघ्नहर्ता म्हणून विशेष प्रिय होता. हे तिथे सापडलेल्या असंख्य लहान लहान गणेशमूर्तीवरून लक्षात येते. त्याला येथे महापियेन असे म्हणत. येथील गणेशमूर्ती ओबडधोबड आहेत.
कंबोडिया (इंडोचयना) : कंबोडियात गणपतीला प्रह कनेस म्हणतात. तो कोठेही तुंदिलतनू दाखविलेला नाही. याशिवाय कंडल येथील एका खासगी वस्तुसंग्रहालयात चार मस्तकांचा गणपती आहे. ही चार मस्तके चार मुख्य दिशांकडे तोंड करून आहेत. चारही मस्तकांवर मिळून एकच मुकुट आहे.
जपान : येथे दोन गजमुखी देवता एकमेकांच्या खांद्यावर माना टाकून एकमेकांना हातांनी विळखा घालून भेटतात. या दोन्ही मूर्तीच्या अंगावर पायघोळ झगे घातलेले आहेत. अशा पद्धतीची मूर्ती कोठेही पाहायला मिळत नाही. गणेशाच्या या स्वरूपाचे साम्य जपानमधील निओ या देवतेच्या स्वरूपाशी मिळतेजुळते आहे. याशिवाय कांति-तेन हे खाल जपानी गणेशाचे स्वरूप अनेक योगिक तांत्रिक कल्पनांचा समावेश करून बनविले असावे.
थायलंड (सयाम) : गणेश देवता ही वैदिकांइतकीच बौद्धांनाही प्रिय होती. बँकॉक येथील िहदू मंदिरांत पंचधातूंची गणेशाची वैशिष्टय़पूर्ण मूर्ती आहे. हनोईमधील ग्रंथालयात एक जुनी पोथी आहे. तिच्यात गणपतीची सहा चित्रे आहेत. त्यापकी एक मूर्ती अति विलक्षण आहे. त्या गणपतीचे नाव कोंचनानेश्वर असून मुकुटधारी आहे. त्याला तीन मस्तके आणि सहा हात आहेत. अगदी वरच्या हातात लहानसा हत्ती धरला आहे. त्या हत्तीला असंख्य डोकी आहेत. खालच्या उजव्या हातात शंख आहे.
मेक्सिको (दक्षिण अमेरिका) : अमेरिकेतील रेड इंडियन लोक व मेक्सिकोमधील लोक आजही गजमस्तक व मनुष्यदेह असलेल्या मूर्तीची पूजा करतात. एॅझटेक या संस्कृतीतील पूजनीय देवतेचे गणेशाशी पुष्कळ साम्य आहे. ग्रीक पुराणात जॅनस नावाची बुद्धिदेवता आहे. ती गजमुखी किंवा दोन तोंडांची आहे. जॅनस देवदेवतेची कोणत्याही कार्याच्या प्रारंभी पूजा केली जाते.
फ्रान्स : रेयुनियन बेटावर सेंट बेनॉइट या मंदिरात एक गणेशमूर्ती आहे. ही मूर्ती पांढऱ्या वस्त्रात असून तिला फुलांच्या माळा घातलेल्या असतात.
चीन : चीनमध्ये दोन ठिकाणी गणेशाच्या प्राचीन प्रतिमा आढळतात. तुन हॉग येथील लेण्यांच्या िभतीवर कोरलेली एक आणि दुसरी कुग हिस्वेन येथील खडकापासून तयार केलेली आहे. बौद्ध संस्कृतीबरोबर चीनमध्ये गणेशाचे आगमन झाल्याचे मानले जाते. तुन हॉग येथील गणेश मूर्तीच्या डोक्यावर मुकुट नसून लाल रंगाची कुऱ्हाड आहे. या मूर्तीसमवेत चंद्र, सूर्य आणि नवग्रहांच्या प्रतिमा आहेत. कुंग हिस्वेनमधील मूर्तीच्या उजव्या हातात कमळ असून डाव्या हातात चिंतामणी आहे. चीनमध्ये गणेशाची उपासना केली जात होती याचे अनेक पुरावे आजही सापडतात.
न्यूयॉर्क : द िहदू टेंपल ऑफ नॉर्थ अमेरिकेच्या संस्थेचे श्री महावल्लभ गणपती मंदिर आहे. ते न्यूयॉर्कच्या फ्लिशग भागात आहे. िहदू शिल्पशास्त्राप्रमाणे अमेरिकेत बांधलेले सर्वात मोठे अधिकृत मंदिर आहे. येथे रजत सिंहासनावर बसलेली काळ्या पाषाणातून कोरून काढलेली गणपतीची भव्य मूर्ती आहे. या मंदिरात शिवपार्वती, व्यंकटेश्वर, महालक्ष्मी, राम-सीता, हनुमान, कृष्ण देवतांची मंदिरे आहेत. त्यांची सोन्याचांदीची आभूषणे जगात सर्वोत्कृष्ट आहेत.
संदर्भ : श्रीगणेश कोश

गुरुवार, १ सप्टेंबर, २०११

स्थित्यंतरे श्रीगणेशाची............

आधुनिक पौराणिक हिंदू धर्मात ज्या पाच देवतांची पूजा प्रामुख्याने रुढ आणि लोकप्रिय झाली , त्यात गणपतीचे स्थान फार महत्त्वाचे आहे . त्याची पूजा विघ्नहर्ता या नात्याने इतर कोणत्याही देवतांच्या उपासनेत प्रारंभी केली जाते , यावरून हे सहज लक्षात येते .

जीवनातील यशाचे मूर्त प्रतिक म्हणजे श्रीगणेश . शिवगणांचा अधिपती या अर्थाने या देवाचे गणपती हे नाव अन्वर्थक आहे . गणपतीविषयीच्या प्रमुख संस्कृत ग्रंथात गणेशतापिनी किंवा वरदा पूर्व आणि उत्तर तापिनी उपनिषदे , गणेश उपनिषद अथवा गणपती अथर्वशीर्ष आणि हेरम्ब उपनिषद , तसेच शिवपुराण , स्कन्दपुराण , गणेशपुराण , मुद्गलपुराण , ब्रह्मवैवर्त पुराणातील गणेश खंड , भविष्य पुराणातील ब्राह्म खंड यांचा निर्देश करावा लागेल . गणपतीची पूजा किती प्राचीन आहे याबद्दल नक्की निर्णय देणे कठीण आहे . वैदिक युगामध्ये सुमारे आठ हजार वर्षांपूर्वी गणपतीची कल्पना साधारणपणे मिळते . गणपती हे नाव वैदिक वाङ्मयात निर्दिष्ट आहे . त्यापूर्वी जी द्रविड संस्कृती भारतात होती , त्या संस्कृतीची देवता गणपती होती . ती आर्यांनी पुढे आपली मानली , असे एक मत आहे . काही असले तरी सुमारे २००० वर्षांपासून गणपतीची पूजा भारतात चालत आली असावी . पण आता गणपतीचा जो आकार आपण पाहतो तोच पूर्वी होता , असे म्हणता येणे कठीण आहे . आपल्या देशात सर्व प्रचलित संप्रदायांचा उगम ऋग्वेदात शोधण्याची प्रथा आहे . यादृष्टीने वेद काळात गणपतीचा उल्लेख कोठे आहे , वैदीक ऋषी गणपतीची पूजा करीत होते का त्याचा शोध घ्यायला हवा .

वेदकालीन गणपतीनिर्देश

गणपती या शब्दाचा स्पष्ट उल्लेख ज्यामध्ये आहे , असे ऋग्वेदाचे प्रसिद्ध सूक्त म्हणजे , गणानां त्वा गणपती हवामहे ... असे आरंभ असलेले दुसऱ्या मंडलातील २३ वे , १९ ऋचा असलेले सूक्त . या सूक्ताचे ऋषी गृत्समद , भार्गव , शौनक आणि १ , ५ , ९ , ११ , १७ , १९ या ऋचांची देवता बृहस्पती तर उरलेल्या ऋचांची देवता बृहस्पती असा स्पष्ट निर्देश संहितेत आहे . म्हणजे बृहस्पती या देवतेची स्तुती गात असताना , त्या देवाचा उल्लेख गणपती असा केलेला दिसतो . म्हणजे ऋग्वेद काळात गणपतीची बृहस्पती किंवा ब्रह्मणस्पति रुपाने पूजा होत होती , असे अनुमान करावे लागेल .

ऋग्वेदात बृहस्पती ही ज्ञानाची देवता असून ११ सुक्तात त्याला स्तुतिसुमने वाहिलेली आहेत . त्याच्याबरोबर नेहमी गाणारे गण असतात . म्हणून त्याला गणांचा पती म्हणतात . वैदिक वाङ्मयात गण हा शब्द लोकांच्या , देवतांच्या किंवा मंत्राच्या समूहाला उद्देशून वापरलेला दिसतो .

गणपती या शब्दाचा सामान्य नामासारखा उपयोग केलेला दिसतो . गणांचे आणि समूहाचे अनेक नायक असत , त्यांना गणपती म्हणत . विनायकांची मात्र दुष्ट दैवत म्हणून प्रथम प्रसिद्धी असावी . गणपती आणि विनायक संख्येने पुष्कळ होते . ते सर्वत्र संचार करीत . विनायक रुद्राप्रमाणे स्वभावाने भयंकर असला तरी त्याला संतुष्ट केले असता , तो सुखकर्ता होऊ शकतो . ख्रिस्ताब्दापूर्वीच विनायक हा श्रद्धाविषय झाला असावा , परंतु , गणपती आणि विनायक म्हणजे एकच ही कल्पना मात्र फार कालांतराने रुढ झाली असावी .

गणपती - उपनिषदे

जुन्या उपनिषदांची समाजातील प्रतिष्ठा लक्षात घेऊन गणपती संप्रदायाच्या अनुयायांनीही गणपती बद्दल जुन्या उपनिषदांच्या धर्तीवर उपनिषदे रचली आणि आपल्या संप्रदायाला श्रृतिमान्यता आहे , असे दाखवण्याचा प्रयत्न केला . याच दृष्टीने अत्यंत प्रसिद्ध अशा सूर्य गायत्रीप्रमाणे गणेशगायत्रीची रचना झाली . गणेशाची हजार , १०८ आणि १२ नावे कल्पिण्यात आली आहेत . गणपतीचे अथर्वशीर्ष रचण्यात आले . पूजेचे तंत्र तयार झाले . मानसपूजा , तेत्रे रचण्याच आली . गणपतीच्या पूजेने आणि आराधनाने मिळणाऱ्या फलांची यादी प्रस्तृत करण्यात आली . तंत्रशास्त्राचा आणि योगमार्गाचा अवलंब करून , गणपतीचे तांत्रिक स्वरुप , बीजमंत्र तसेच मालामंत्र , सहाअक्षरी , अष्टाक्षरी वगैरे मंत्र तयार करण्यात आले . विनायक यंत्र आणि गणेशयाग यांचीही कल्पना नक्की करण्यात आली . या सर्व प्रचलित लोकश्रद्धेला प्रतिष्ठा देण्यासाठी आथर्वण ऋषींनी जुन्या नव्यांची सांगड घालणारी नवीन उपनिषदे रचली . त्यात मुळातील एकात्मवाद कायम ठेवला आणि सगुण व निर्गुण स्वरुपांचा सुंदर संगम या उपनिषदात वर्णिला . अनेकी सदा एक देवासी पाहे ... या तत्त्वाप्रमाणे गणपतीच्या सगुण रुपाचे उदात्तीकरण ओमकाररुपात आणि बर्यायात परब्रह्मरुपात करण्याचा प्रयत्न या उपनिषदात केलेला आढळतो . त्यामुळे गणपतीमूर्तीवरही अनेक पारमार्थिक रुपके आरोपित करण्यात आलेली दिसतात . गणपतीच्या स्तुतीपर चार उपनिषदे आहेत . ती म्हणजे गणपत्युपनिषद ( याचेच सर्वश्रृत नाव गणपती अथर्वशीर्ष असे आहे .) हेरम्बोपनिषद आणि वरदा पूर्व आणि उत्तरतापिनी उपनिषदे . वरद - पूर्वोत्तर उपनिषदांचेच दुसरे नाव गणेश पूर्वोत्तरतापिनी असे आहे .

गणपती अथर्वशीर्षाचा रचयिता गणक नावाचा ऋषि आहे . हेरब्म उपनिषद शंकरांनी गौरीला सांगितले . तर वरदा पूर्व आणि उत्तरतापिनी प्रजापति , याज्ञवल्क्य आणि रुद्र यांनी निवेदन केली आहे . ही सर्व उपनिषदे अथर्ववेदाशी निगडीत आहेत .

गणेशपुराण
गणेशपुराणाला गणपती संप्रदायात फार मोठे स्थान आहे . त्यात गणपतीच्या स्तुतीपर अनेक कथा असून गणपतीने कोड बरे केल्याचा उल्लेख आहे . त्यात गणपतीच्या संप्रदायाची आणि पूजाविधीचीही सविस्तर माहिती आहे . गणपतीच्या हजार नावांचाही निर्देश आहे .

सिंदूर नावाच्या असुराने गणपतीला नर्मदा नदीत फेकून दिले . पुढे गणपतीने सिंदुरासुराचा वध केला , म्हणून त्या रक्ताने नर्मदेचे पाणी लाल झाले . नर्मदेतील रक्तवर्ण गोट्यांची - दगडांची नर्मदे गणपती म्हणून अद्याप पूजा केली जाते . घृष्णेश्वराजवळील सिंधुरवाड येथे सिंधुरासुराचे सुवासिक रक्त अंगाला माखून गणपतीने अवतार कार्य संपवले , असा उल्लेख गणेशपुराणात सापडतो . म्हणून गणपतीच्या पूजेत शेंदूर गणेशाला प्रिय , असे मानण्यात येऊ लागले .
गृत्समद , वरेण्य आणि मुग्दल हे गणपतीचे थोर भक्त . गणेशाने आपली हजार नावे शिवाला आणि गणेशगीताला वरेण्याला सांगितली . गणपतीची जयंती वैशाख पौर्णिमा , ज्येष्ठ , भाद्रपद किंवा माघ महिन्याच्या शुक्ल चतुर्थीला साजरी होते . रिद्धी आणि सिद्धी या त्याच्या दोन पत्नी . गणपतीची बारा नावे प्रसिद्ध आहेत . ती अशी - सुमुख , एकदन्त , कपिल , गजकर्णक , लम्बोदर , विकट , विघ्ननाश , गणाधिप , धूम्रकेतू , गणाध्यक्ष , भालचंद्र आणि गजानन . गणपती म्हणजे प्रणवाचे मूर्त स्वरूप त्याची पूजा , म्हणजे परब्रह्माची पूजा .

गणपतीचा प्रत्येक युगात अवतार होता आणि त्या त्या युगात तो भिन्न भिन्न नावांनी ख्यात आहे . कृतयुगात तो कश्यपपुत्र विनायक असून त्याला दहा हात होते . त्यावेळी त्याचे वाहन सिंह होते . अंगकांती तेजस्वी होती . त्यावेळी त्याने देवांतक आणि नरांतक या असुरांचा संहार केला . त्रेता युगात तो शिवपुत्र असून मयूरेश्वर या नावाने प्रसिद्ध झाला . या अवतारात त्याला सहा हात होते . अंगकांती शुभ्र होती . तो त्यावेळी मोरावर बसत असे . या युगात सिंधु नावाचा दैत्याचा त्याने नाश केला . द्वापार युगातही तो शिवपुत्र असून या गणेशाची गजानन म्हणून प्रसिद्धी झाली . त्यावेळी त्याची अंगकांती लाल होती . त्याला चार हात होते आणि त्याचं वाहन उंदीर होते . त्या युगात सिंदुराचा वध करून वरेण्याला त्याने गणेशगीता सांगितली . कलियुगात धुम्रकेतू या नावाने त्याची प्रसिद्धी होईल ; अंगकांती धुम्रवर्ण असून त्याला दोन हात असतील , त्यावेळी त्याचे वाहन अश्व असेल .

परब्रह्मरुप गणेशाच्या स्वरुपाचे सत्यज्ञान ध्यानानेच होऊ शकते . परंतु त्याच्या मूर्तीची मनोभावाने पूजा करूनही त्याचा अनुराग्रह होतो . मुग्दलपुराण हा गणपती संप्रदायातील थोडाफार अर्वाचीन ग्रंथ . त्यात गणपतीच्या बत्तीस प्रकारच्या मूर्तींची वर्णने आहेत . स्कंदपुराणात तो विघ्नहर्ता व सुखकर्ता , असे त्याचे वर्णन आहे . त्याच पुराणात आपल्या अंगाच्या सुगंधी उटण्यापासून पार्वतीने गणेशाची निर्मिती केली , असा निर्देश आहे . ब्रह्मवैवर्त पुराणाच्या गणेशखंडात गणपतीच्या जन्माविषयी व त्याच्या गजमुखाविषयी बऱ्याच भिन्न भिन्न कथा दिलेल्या आहेत . गणेश हा शिवपार्वतीचा मुलगा असला तरी त्याचा मानवासारखा आईच्या पोटातून जन्म झाल्याचे वर्णन नाही . त्यादृष्टीने तो अयोनिज आहे . शनीच्या दृष्टीपातामुळे गणपतीचे डोके गळून पडले , तेव्हा शंकराने त्या जागी हत्तीचे डोके बसवले . भाद्रपद शुद्ध चतुर्थीखेरीज इतर कोणत्याही दिवशी तुळशीची पाने गणपतीच्या पूजेत वापरत नाही . पद्मपुराणात सृष्टीखंडात गणपतीची बारा प्रमुख नावे सांगितली आहेत . ती अशी - गणपति , विघ्नराज , लम्बतुण्ड , गजानन , दवमातूर , हेरंब , एकदन्त , गणाधिप , विनायक , चारुकर्ण , पशुपाल आणि भवात्मज .
डॉ . भांडारकरांच्या मते कोणत्याही गुप्तकालीन शिलालेखात गणपतीच्या नावाचा उल्लेख सापडत नाही . इसवीसन ८६२मधील पटियाला ( जोधपूर ) येथील शिलासासनातील स्तंभावर गणपतीचे स्तोत्र आहे . या स्तंभाच्या वरच्या बाजूला पाठीला पाठ लावून चारीकडे तोंड करून बसलेल्या चार गणपतीमूर्ती आहेत . इसवीसनाच्या आठव्या किंवा नवव्या शतकात नेपाळ व तिबेटमध्येही गणेशाची आराधना प्रचलित होती , असे दिसते . इसवीसन ६००च्या उत्तरार्धात शंकराचार्यांच्या काळी आपल्या देशात गाणपत्य पंत प्रबळ होता . शंकराचार्य पुरस्कृत पंचायतन पूजेत गणपतीला यामुळेच मानाचे स्थान मिळाले . इसवीसन पहिल्या शतकातील हाल सातवाहन आपल्या गाथासप्तशतीत गणाधिपती ( गमाहि वई ) असे गणपतीचे स्तवन करतो . शिल्पशास्त्रज्ञांच्या मते बूमार येथील शक्ती गणपती आणि मथुरा येथील स्थानक गणपती वगैरे प्राचीन शिल्पे इसवीसन ५०० ते ६०० या कालखंडातील आहेत . तेथून पुढे गजमुख , पुरुषाकृती वगैरे आकार स्पष्ट झाला . वेरुळच्या लेण्यात काल , कालि आणि सप्तमातृका किंवा शक्तींच्या मूर्ती आहेत . त्याचप्रमाणे तेथे गणपतीची आज आपण पाहतो , ती गजमुखाकृती रुढ झाली असावी , असे दिसते . महाकवी भवभूती यानेही आपल्या मालती माधव नाटकाच्या नांदीत गजमुखाचा निर्देश केला आहे . इसवीसन ८३२च्या एका शिलालेखात विनायकाची सुरुवातीच्या वाक्यात स्तुती केलेली आढळते .

पुराण हिंदूधर्मात ब्रह्मा , विष्णु आणि शिव या त्रिमूर्तींचे फार मोठे स्थान होते . त्यांच्या स्तुतीपर प्रत्येकी सहा पुराणेही आहेत . परंतु कालांतराने ब्रह्मदेवाची पूजा किंवा संप्रदाय भारतात लोप पावला , असे दिसते . ब्रह्मदेवाचा संप्रदाय नष्ट झाला , तरी विष्णू आणि शिव यांच्याएवढेच महत्त्व मिळवून गणपती संप्रदाय मात्र भारतात दृढमूल झाला , एवढे मात्र सत्य आहे .
( संदर्भ : श्रीगणेश कोश )

मंगळवार, २३ ऑगस्ट, २०११

अंतर्मनाची जागृती- एक चमत्कार...

अंतर्मनाची जागृती एक चमत्कार....

साधना...

साधकाने सुखासनात बसावे. दीर्घ श्वास घेऊन तो सोडुन द्यावा. कुंभक वगैरे करु नये. नंतर हळुहळु डोळे बंद करावे. लक्ष्य भ्रुमध्यावर किंवा, टाळुचे ( सहस्रधाराच्या ठिकाणी ) केंद्रित करा.. नंतर तुमच्या आवडत्या देवतेचे मोठ्याने नामस्मरण करा... उच्चार करत असतांना त्या आवाजातील कंप जाणा... नंतर सुमारे तीन चार मिनिटे मोठ्याने नामस्मरण करा... नंतर मात्र दोन नामस्मरणात गॅप ठेवा..पहिले नाम घेतल्यावर थोडे थांबा.....त्या नामाने जी लाट उसळली आहे ती शांत होऊ द्या.. नंतर त्या गॅपवरच लक्ष ठेवा. परत थोड्या वेळाने दुसरे नाम घ्या....अशा प्रकारे दोन नाम मधील गॅप वाढवत चला... व त्या गॅपकडेच अवधान असु द्या. असे करतांना तुम्हाला नकळत गॅप वाढवला गेल्याचा अनुभव येईल.. हिच अवस्था पकडुन ठेवा..कारण ह्या गॅप मधे आपले बाह्यमन हे स्थिर झालेले असते..मन हे एका विषयावरुन उठुन दुसऱ्या विषयांवर जात असतांना जो मधला कालखंड असतो, तेच अंतर्मनाचे स्वरुप होय.. तेच परमात्म्याचे स्वरुप होय.. असो..
दोन नामामधला गॅप वाढवा.. आणखी वाढवा.. उतावळे बनु नका.. विचारांना साक्षी ही राहु नका...आपोआप मन हे निर्विकार होईल... डोळ्यांवर अंमल झोपेचे झापडे येऊ लागेल.....पण झोपु नका... निग्रहाने जागे राहा... पुन्हा नाम घ्या ... गॅप वाढवा... व त्या गॅपकडे पाहा...
हळुहळु मनातील विचार शांत होतील... त्या गॅपमधील स्थिती अनुभवा....यावेळी मन हे सुक्ष्म होऊ लागेल.... भ्रुमध्यभागी किंवा, डोक्यात थोडासा जडपणाचा अनुभव येऊ लागेल...पण तो अल्पकाळच टिकेल... नंतर गोड संवेदना सर्व शरीर भर पसरल्याचा अनुभव येईल...यात अडकु नका...पुन्हा नाम गॅपकडे लक्ष्य ठेवा...गॅप वाढवा...
असे चालु असतांना उठावेसे वाटेल, आळस प्रगट होऊ लागेल...जांभया येऊ लागतील...पायाला रग येईल...भुकेची जाणिव होईल.... असले प्रकार होणे स्वाभाविकच आहे...कारण या साधनेत अल्पकाळ का होईना...बाह्यमनाचा नाश होऊ लागतो...स्वतःचा नाश होणे कोणाला आवडेल.... स्वताःचा नाश होत आहे हे पाहुन बाह्यमनच अशा प्रकारचा अडथळा निर्माण करते...
तुम्ही थांबु नका... पुन्हा नाम घ्या.... व गॅप वाढवा....
मित्रांनो... ही अतिशय दिव्य प्रकारची व प्रभावी साधना आहे. ..तुम्ही जेव्हा या साधनेतुन जागे व्हाल, तेव्हा तुम्हाला अतिशय दिव्य आनंदाचा अनुभव येऊ लागेल.... तुम्हाला या जगताविषयीचे गांभिर्य वाटणार नाही.... तुम्हाला खुपच प्रसन्न वाटु लागेल... आळस वा कंटाळा कोठल्या कोठे पळु गेल्याचा अनुभव येईल.....तुम्हाला खरे तर या साधनेतुन उठावेसेच वाटणार नाही... असे होणे म्हणजेच ही साधना योग्य मार्गाने होत असल्याचे गमक आहे....
या साधनेत जप....तप....प्राणायाम करण्याची गरज नाही...ज्ञानयोगादि योग करण्याची गरज नाही....ही साधना सर्व साधनांत श्रेष्ठ आहे.... गेल्या वीस वर्षापासुन ही साधना मी अजुनही करीत आहे.... व अंतर्मनाच्या अथांग सागरात डुबकी मारुन मी धन्य होत आहे... मी या साधनेसाठी श्रीराम-जयराम हा मंत्र म्हणतो...श्रीराम शब्द म्हटल्यावर गॅप ठेऊन पुढचा शब्द जयराम म्हणतो... मित्रांनो..... एकदा श्रीराम बोलल्यावर पुढचा जयराम हा कधी येतो ते आठवत नाही.... बऱ्याचदा येतच नाही....त्या मधल्या अवस्थेत दिव्य आनंदात मी मग्न असतो...तो आनंद शब्दातित व अवर्णनिय असा आहे...आताही हे लिहित असतांना माझ्या बाह्यसंज्ञा पुर्णपणे लोपल्या असुन अंतर्मनाच्या प्रवाहात मी डुंबुन गेलो आहे...डोळ्यांवाटे आनंदाश्रु वाहत आहेत व अंगभर सुखद रोमांच प्रगटले आहेत...सारा निसर्गच जणु या अवस्थेचे स्वागत करत आहे.....
मित्रांनो... ही साधना करत असतांना आपण आपला ताबा अंतर्मनाकडे देतो.... त्यावेळी आपली काळजी अंतर्मनच वाहते. आपल्या पोटा-पाण्याची, आपल्या परिवाराची काळजी अंतर्मनच करते... आपल्याला विशेष काही करावे लागत नाही....
कंपनीत एखादी  सिस्टिम कॅसकेड मध्ये टाकली की, ती आपोआपच कंट्रोल होत असते... त्यासाठी ऑपरेटरला विशेष काही करावे लागत नाही...
तुकोबाराय महाराज म्हणतात....
जेथे जातो तेथे, तु माझा सांगाती।
चालविशी हाती धरुनिया।।
हाच तो पांडुरंग, हाच तो परब्रह्म, अंतर्मनाच्या रुपाने तुमच्या आमच्या ह्रदयात वास करतो आहे... तोच साऱ्या विश्वात प्राणतत्वाने वास करीत आहे....
आपण जो जो विचार करतो तो आपल्या अंतर्मनात रेकॉर्ड होत असतो..त्यामुळे त्याच विचाराचे आऊटपुट आपल्याला मिळत असते...हे माझ्याने होणार नाही असे म्हणण्याचा अवकाश.... अंतर्मन तुम्हाला तसेच आऊटपुट देऊन ते तुमच्या हातुन कधीच होऊ देणार नाही अशी व्यवस्था करते....किंवा, मला नशापाणी केल्याशिवाय चैन पडत नाही,, त्याशिवाय झोप येत नाही असले विचार केल्यावर अंतर्मन तसेच फळ आपल्याला बहाल करत असते.... अमकी एखादी गोष्ट मी सहजच करुन दाखविन असे विश्वासाने म्हणण्याचा अवकाश..... मग ती गोष्ट कितीही अवघड असो....अंतर्मन ती गोष्ट सहजच करुन दाखवते.... हा अंतर्मनाचा चमत्कार होय.... अण्णा हजारेंनी जे विश्वासाने उपोषण चालवले आहे... त्या साऱ्या गोष्टीत त्यांचे अंतर्मनच त्यांच्या पाठीशी आहे... हा अंतर्मनाचा मोठ्ठा चमत्कार आपण व सारे जग पाहतच आहे...
आपण सतत नकारात्मकच विचार करत आलो आहोत व आपल्या मुलाबाळांनाही आपण असेच नकारात्मक पणेच वागवत आलो आहोत... हे तुझ्या हातुन होणारच नाही... तु अजुन बच्चा आहे.... असले धंदे करुन का तुझे पोट भरणार आहे का.... तु अगदी बावळटच आहे..... गधा आहेस.... तुला अक्कल नाही... उगाच मोठ्य मोठ्या गप्पा मारु नकोस...तुला कवडीचे ज्ञान नाही....उगाच बकवास करु नकोस......मुर्ख कुठला...तुला लायकी नाही.... मोठे झाल्यावर कळेल तुला....मुकाट्याने तुझा अभ्यास कर.... नको तो उपद्व्याप करु नको... त्यात तुला यश येणार नाही.... उगाच मोठेपणाचा आव आणु नकोस.....वगैरे बोलुन आपण आपल्या पाल्यास अगदी नकारात्मक विचारांचा असा नेभळट करुन टाकतो..... त्यांचे अंतर्मन आपण अंकुरीत होण्याच्या अगोदरच कोमजुन टाकतो.... मग त्याला तसेच आऊटपुट मिळाल्यास नवल नाही....
मित्रांनो... असे काही करु नका... मुलांना तेजस्वी व कणखर मनाचे घडवण्यात आपलाच सहभाग असला पाहिजे... कारण आपला पाल्य खुप काळ आपल्या संपर्कात असतो.... त्याला मनाचे समृद्ध व बलवान बनवा... त्याला देशाचे कणखर नागरीक बनवा... त्याचे अंतर्मन बलवान कसे होईल त्याकडे लक्ष्य द्या... आपल्या चिमुकल्याला अंतर्मन जागृतीच्या साधना करायला सांगा....जप तप तीर्थाटण आदिंपेक्षा अंतर्मन कसे जागृत होईल यांकडे लक्ष द्या... त्याच्या हातुन वाईट होणार नाही हे ही आवर्जुन पाहा.... या पेक्षा मी आणखी काय सांगणार... असो... मी ही जी साधना सांगितली आहे, ती अनुभव सिद्ध आहे... प्रत्येकाने करुन पाहा व दुसऱ्यालाही आवर्जुन सांगा.... तुम्हाला काही शंका असतील तर माझ्या मेल वर पाठवा.... अजुनही खुपच प्रभावी साधना आहेत पण तुर्तास ही साधना सांगुन मी तुमचा निरोप घेतो.... व यावरील लिखाण मी थांबवतो.... तुम्हाला या साधने द्वारे खुपच दिव्य अनुभव येवो... व तुमचे कल्याण होवो... मंगल होवो.. अशी मी अंतर्मनाजवळ माझ्या पांडुरंगाजवळ प्रार्थना करतो.. श्रीहरी... श्रीहरी....
माझा मेल आय डी..dsitaram27@yahoo.co.in  ( समाप्त )

        .......डी सिताराम

गुरुवार, १८ ऑगस्ट, २०११

अंतर्मनाची जागृती- एक चमत्कार...

अंतर्मन हे सर्वव्यापी आहे. हे यापुर्वी सांगितलेच आहे. काहीजण याला Cosmic  Electricity ( विश्वव्यापी विद्दुतशक्ती ) असेही म्हणतात.. अंतर्मन पुर्ण जागृत झाले तर ते सर्व फळ देण्यास समर्थ होते. असा योगी जगतावर अप्रतिहत सत्ता गाजवु शकतो... त्याची कुंडलिनि शक्ति जागृत झालेली असते... तो दुसऱ्याच्या मनातील विचार ओळखु शकतो.. किंवा आपले विचार दुसऱ्या व्यक्तित संक्रमण करु शकतो.. त्याच्या दिव्य चक्षुस दुरवरचे दिसु शकते... भुत-भविष्याचे त्याला ज्ञान होते... हस्तस्पर्शाने तो दुसऱ्या व्यक्तिस आनंदित करु शकतो.. अथवा त्यास दिव्यज्ञान देऊ शकतो...व त्याच्या मनात ईश्वरीय तत्व भरु शकतो...
अशा श्रेष्ठ क्रियेस योगशास्रात शक्तिपात असे म्हटले आहे... माझे सद्गुरु ब्रह्मलिन श्रीपाद बाबा हे असेच शक्तिपाताचे स्रोत होते... अध्यात्मिक अनुभुति ते तात्काळ ते शिष्याच्या ह्रदयात संक्रमित करीत असत.. नंतर हा शिष्य संशय रहित होऊन जात असे...त्यांचे अंतर्मन पुर्णपणे जागृत झालेले होते... ते विश्वस्वप्नातुन पुर्णपणे जागृत झालेले होते..त्यांनी दुसऱ्यांच्या संपत्तीवर कधीच डोळा ठेवला नाही..किंवा, शिष्यांकडुन पैसा गोळा करुन ट्रस्टही उभारला नाही.. ते साक्षात फिरती ज्ञानगंगा होते... त्यांच्या पश्चात त्यांच्या गादीवर महाड येथील कातिवडे ( बिरवाडी ) येथील सद्गुरु नारायण महाराज गायकवाड ह्यांनी अध्यात्मिक धुरा सांभाळली....ह्यांची ज्ञान पातळी अतिशय उच्चपातळीची होती...अशा जीवन्मुक्तांच्या सहवासात मला दीर्घकाळ रहावयास मिळाले हे माझे परम भाग्यच होय...त्यांच्या चरणांशी बसुन मला ज्ञानामृत प्राशन करायला मिळाले... त्यांच्या कृपेने मला क्षणभर का होईना जीवन्मुक्तिचा अनुभव आला.. व अंतर्मन जागृतीचा अनुभव घेतला.. असा अनुभव सर्वांनाच मिळावा अशी माझ्या मनाची तळमळ आहे... त्यासाठी ही उठाठेव आहे... दररोजचे कामकाज सांभाळत असतांना वेळ मिळेल तेव्हा रोज थोडेतरी लिहावे, असा संकल्प मनाशी धरुन आहे...त्यासाठी फेसबुकचे माध्यमाचा आधार घेतला आहे... हे अनुभव सिद्ध ज्ञान सर्वांनाच मिळावे अशी माझी मनिषा आहे....असो...
निवृत्ती, ज्ञानदेव, सोपान व मुक्ताबाई तसेच.. नामदेव, तुकाराम, एकनाथ, गोरा कुंभार, सावता माळी, जनाबाई यांसारखी संत मंडळी म्हणजे आपल्या महाराष्ट्राचे भुषणच होत... त्यांच्या भक्तियोगाने अध्यात्मिक शक्ति इतकी उंचावली होता की, ते या विश्वस्वप्नातुन जागे झाले होते....जीवन्मुक्त बनले होते.. त्यांच्या अंतर्मनावर त्यांचा पुर्ण ताबा होता.. त्यांची या विश्वावर अप्रतिहत सत्ता चालत होती...त्यांच्या हातुन त्यांना नकळत काही चमत्कारही झाले..पण त्यांचा अहंपणा किंवा, प्रसिद्धिचा हेतू नव्हता... प्रत्येक प्राणिमात्रांबद्दल त्यांच्या मनात कळकळ होती..त्यांचे मन विश्वाशी एकरुप झाले होते.... अशा जीवन्मुक्त संतांना माझे कोटी कोटी प्रणाम...असो...
आता पर्यंत आपण अंतर्मनाच्या प्रांगणात उभे राहुन त्याचा थोडासा अभ्यास केला....त्यास जाणुन घेण्याचा प्रयत्न केला...आता प्रत्यक्ष अंतर्मनाचेच द्वार उघडुन त्यात प्रवेश करायचा आहे...
माझे मित्र हे सात्विक विचाराचे असल्यामुळे त्यांना काही अनुभव सिद्ध साधना सांगाव्यात की ज्यायोगे त्यांचेही अंतर्मन हे क्षणभर का होईना जागृत व्हायला पाहिजे...असे माझ्या मनास वाटत आहे...अंतर्मन जागृतीचे अनेक उपाय विविध ग्रंथांमधुन सांगण्यात आले आहे...पण मी ज्या काही सांगणार आहे त्या साध्या, सोप्या, सहज करतो येण्याजोग्य व अनुभव सिद्ध अशाच आहेत... काही साधना गुरुकृपेने प्राप्त झाल्या आहेत... त्या पैकी माझ्या मित्रांनी एखादी साधना नियमित करुन स्वतःचे कल्याण करुन घ्यावे व दिव्य आनंदाचा लाभ घ्यावा...साधनेने अंतर्मनाचा स्पर्श झाल्याशिवाय रहाणार नाही. असे झाले तर त्यांचे सर्व जीवन मंगल तेजस्वी व आनंदमय झाल्याशिवाय रहाणार नाही.. अंतर्मनाची शक्ति अशा साधकाचे ऐहिक व पारमार्थिक कल्याणच करते....हे मी माझ्या स्वानुभवाने सांगतो............ श्रीहरी.. श्रीहरी,,,( क्रमशः )

मंगळवार, १६ ऑगस्ट, २०११

अंतर्मनाची जागृती- एक चमत्कार...

अंतर्मनाच्या जागृतीची अवस्था आपल्याला निरंजनपदाकडे घेऊन जाते. कारण यात जगताचे प्रतिबिंब नसते.. जगद्भ्रम नसतो... जगातील विकार नसतात....जगताचे प्रतिबिंब हे बाह्यमनात भासते.. त्यानुसार आपण जगात व्यवहार करत असतो.. भय, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ आदि विकार हे बाह्यमनातच भसत असतात.. मित्रांनो.. हा विषय समजण्यास जरा कठिण आहे.. पण तो सोपा करुन सांगण्याचा प्रयत्न करणार आहे. अंतर्मनाचे ज्ञान मिळवायचे.. ज्ञानाने अज्ञान निवृत्त करायचे व नंतर ज्ञानाचाही त्याग करायचा.. नाम घेता घेता आपण नामातित व्हायला पाहिजे... स्वतःला नामात विलिन करता यायला पाहिजे.. तिच अंतर्मनाची जागृती व तोच आत्मसाक्षात्कार..
नाथांच्या घरची उलटी खुण ही तिच आहे.. सद्गुरुंनी दिलेले नाम जपता जपता आपणच सद्गुरुंना गिळुन सद्गुरुपदी आरुढ व्हायला पाहिजे.. नंतर त्या पदाचाही त्याग केला पाहिजे.. हाच तो अंतर्मन जागृतीचा प्रवास.....मी जास्त भक्तियोगाबद्दल लिहिणार नाही.. कारण तो स्वतंत्र विषय आहे... त्याबद्दल मी कधीतरी लिहिनच... असो.. याठिकाणी त्याचा उल्लेख करण्याचे कारण की, अंतर्मन हे भक्तियोगाने कशा प्रकारे जागृत होते.. हे माझ्या मित्रांना सांगायचे होते... कारण स्वतःला ईश्वराचा महान भक्त म्हणवणारे देखील मायेत अडकततात व विषयसुखाच्या मागे लागुन कपाळमोक्ष करुन घेतात... आपल्याला असा वरकरणी देखावा नको.. त्यासाठी दर आषाढी कार्तिकीला पंढरपुरी जाणे नको.. व्रत वैकल्य, जप तप करणे नको... कष्टसाध्य हटयोग नको... वा प्राणायामादि अवघड क्रिया देखील नको.. कारण यांसाठी सद्गुरुंच्या संगतीची गरज असते.. हल्लीच्या फसवेगीरीच्या कालखंडात खरे सद्गुरु शोधुन काढणे अवघड असते... हा विषय एकदा का समजला म्हणजे आपल्या मनाची तयारी होईल.... व आपल्याला नक्की काय व कशासाठी करायचे याचा बोध पक्का होईल...
माझा एक मित्र आहे.. धार्मिक मनाचा, नियमित जप तप करणारा.. वारी करणारा.. असा.. पण तो नेहमी दुःखी कष्टी व उदास असायचा... त्याचे कारण त्याला विचारले असता... तो म्हणाला की, भगवंताचे मी इतके करतो पण त्याने मला कधीच चांगले दिवस दाखवले नाही.. पैसा हातात दिला नाही...त्याच्या दृष्टीने ईश्वराची उपासना ही केवळ ऐहिक उपभोगासाठी करायची... म्हणजे याचा अर्थ त्याला ईश्वर समजला नव्हता... व त्याच्या मनात असलेल्या अंतर्मनाच्या प्रचंड सामर्थ्याची त्याला जाणिव नव्हती.. नंतर त्याला मी ईश्वर प्रणिधानाची व अंतर्मन जागृतीची दीक्षा दिली.. यात माझा मोठेपणा बिलकुल नाही... मी कोणी साधुपुरुष देखील नाही.. हे माझ्या मित्रांना मी आताच सांगुन ठेवतो...असो.. यानंतर माझा तो मित्र शांत झाला.. त्याचे मन भरकटण्याचे थांबले... व तो ऐहिक दृष्टीने व पारमार्थिक दृष्टीने सुखी आहे.. तो म्हणतो की आज खरा ईश्वराचा अर्थ कळला आहे... इतके दिवस नुसता शब्दज्ञानी बनलो होतो... शब्दांचा खेळ...
मित्रांनो.. अंतर्मन जागृतीसाठी आपल्याला एका गोष्टीची सतत जाणिव ठेवायला पाहिजे, ती ही की, आपल्या मनातील पाच विकारांचा लय व्हायला पाहिजे. ते विकार म्हणजे.... संकल्प- विकल्प, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हा विषय चांगला समजण्यासाठी मी आपल्याला सर्वांच्या परिचयाचे उदाहरण सांगतो... मी ऑफिस मधुन दमुन थकुन घरी येतो. त्यावेळी मला गरमा गरम चहा घ्यावसा वाटतो.. माझ्या साऱ्या चित्तवृत्ती या चहाकडे लागलेल्या असतात. माझे मन चहाच्या संकल्पात रममाण होते.. कान स्वयंपाक घरातील आवाजाचा वेध घेऊ लागतात... माझी वृत्ती ही कानाच्या रुपाने स्वयंपाक घरात धाव घेते.. स्वयंपाक घरातुन चहा ठेवण्याचा आवाज येतो.. साखरेच्या डब्याचा व चहाच्या डब्याचा आवाज ऐकल्यावर माझी पक्की खात्री होते की चहा ठेवला गेला आहे... त्यामुळे माझे संकल्प विकल्प शांत होतात..... मनाची स्वयंपाक घरातील आवाजाकडे लक्ष देण्याची वृत्ती शांत झाली.. नंतर तो चहा थोड्या वेळाने प्रत्यक्ष हातात येतो त्यावेळी माझी बुद्धी शांत होते... व चहा घेतल्यावर मात्र माझा अहंकार देखील शांत होतो... व मला चहा प्यायल्यावर सुख वाटते मित्रांनो... आता विचार करा की माझे सुख चहाच्या कपबशीत आहे का.... नाही... कारण तसे असते तर मी दररोज चहा पितो.. तर मी सुखी व्हायला पाहिजे.. पण तसे होत नाही... कारण माझ्या चंचल चित्तवृत्ती जेव्हा शांत होतात त्याच वेळेस मला खरे सुख मिळते... हीच गोष्ट विषयसुखाबाबत समजावी.... चहाचे एक सौम्य उदाहरण दिले आहे....या चंचल वृत्ती जेव्हा शांत होतात त्यावेळी माझ्या बहिर्मनास अंतर्मनाचा स्पर्श झालेला असतो... आता असे अंतर्मन आपल्याला हवे त्या वेळेला जागृत करता आले तर...अर्थात् कोणाचीही मदत न घेता.. काय मजा येईल नाही का... खुपच मजेचा विषय आहे हा....
आणखी एक उदाहरण... जेव्हा आपल्याला गाढ- प्रगाढ अशी झोप लागते त्यावेळी आपले मनातील सर्व विषय चित्तात लय पावतात. त्यावेळी चित्त व अहंकार देखील लयास जातो...कारण या वेळी मी कोणी मोठा माणुस नसतो.. साहेब नसतो.. अशा गाढ झोपेत पुरुष पुरुष नसतो, स्री ही स्री नसते, सन्याशी संन्याशी नसतो, ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी नसतो... कारण की गाढ झोपेत एकही विषय नसतो... गाढ झोपेत संकल्प विकल्प थांबले आहेत, चित्ताचा वेध घेण्याचे थांबले आहे, बुद्धिचा विचार करण्याचे थांबले आहे.... त्यावेळी अहंकारही आपोआपच लयाला जातो...झोपेतुन उठल्यावर किती ताजेतवाने वाटते.....याचा अर्थ असा होतो की, समोर एकही विषय नसतांना खरे सुख मिळते... .याचाच अर्थ असा की, विषयांत सुख नसते... ते असते सुखाचे प्रतिबिंब... एक मृगजळ....ज्याचे अंतर्मन साधनेने जागृत झाले आहे, तो साधक अशा सुखासाठी त्याला सुखाच्या प्रतिबिंबाकडे धावण्याची गरजच नसते... ( क्रमशः )

                                     .....डी सिताराम

सोमवार, १५ ऑगस्ट, २०११

अंतर्मनाची जागृती- एक चमत्कार...

या ठिकाणी माझा एक अनुभव सांगणे वावगे होणार नाही असे मला वाटते...याचे कारण असे की, माझ्या सारख्या यत्किंचित माणसाला असे अनुभव येऊ शकतात तर जो कोणी भाग्यवान साधक अध्यात्मात अमळ प्रगत असेल तर त्याला याहुनही जास्त प्रमाणात अनुभव नाही का येऊ शकणार.....
माझा एक अनुभव....
लहानपणी आमची गरीबीची परिस्थिती होती. अत्यंत हालाखीत बालपण गेले. वडिलांनी आम्हाला वाचनाची गोडी लावली. आम्ही खड्या आवाजात कविता व पाढे म्हणत असु. आई विठ्ठलाची भक्ति करत असे. आई बरोबर मी पण विठ्ठल मंदिरात जात असे व विठ्ठलास नमस्कार करत असे. विठ्ठलास प्रदक्षिणा मारत असे. त्या बालवयात माझे व विठ्ठलाचे काहीतरी नाते आहे, असे मला सतत वाटत असे. विठ्ठलाची मुर्ति मी डोळे भरुन पाहत असे. त्यावेळी मला काळ वेळाचे भान राहत नसे. हा कालखंड माझ्या विठ्ठलाच्या अनिवार ओढीचा होता. मंदीरात जेव्हा हरिपाठ होत असे त्यावेळी माझे भान हरपुन जात असे. टाळ मृदुंगाचा ध्वनी मला बेहोष करत असे व मी तहानभुक विसरुन जात असे. मोठेपणी मला कळाले की, मी लहानपणीच नाद समाधीचा अनुभव घेतला होता.
मी लहान असतांनाची गोष्ट, माझ्या मित्राचा नवस फेडण्यासाठी आम्ही पातोंड्याहुन बैलगाडीने चाळीसगांव जवळील पाटणादेवीस निघालो होतो. पाच सहा बैलगाड्या होत्या. मी माझ्या आई सोबत होतो. रात्रीची वेळ होती. आकाशात पुर्णचंद्र होता. खुपच छान वातावरण होते. सगळीकडे पिठुर चांदणे पडले होते. आकाशात चांदण्या चमकत होत्या. बैलांच्या गळ्यातील घुंगरांचा आवाज वातावरण प्रसन्न करत होता. मी दिग्मुढ होऊन तो देखावा पाहत होतो. मीच सगळीकडे आहे असे वाटु लागले होते. सारे वातावरण मीच बनलो आहे, असा अनुभव मी घेत होतो. आकाशातील चंद्र तारे व आसमंतात पसरलेला नाद सारे काही मीच बनलो आहे अशा अनुभवात मी रमुन गेलो, हळुहळु माझी जाणिव हरपत होती व मन दिव्य आनंदाचा वेध घऊ लागले होते. माझ्या सकल संज्ञा हरपल्या व मी निचेष्ट पडलो. कितीतरी वेळ मी त्या तंद्रित होतो कोणास ठाऊक पण ज्यावेळी मी डोळे उघडले, त्यावेळी आम्ही पाटण्याच्या डोंगराजवळ आलो होतो. चंद्र पश्चिमेला कलला होता. मन माझे अतिशय हलके हलके झाले होते.. डोळ्यांसमोर एकतत्वाच्या लहरी दिसत होत्या... सारे काही एकच आहे....अशा अनुभवात मी रमुन गेलो... हा माझा पहिला साक्षात्कार असावा. कारण या घटनेनंतर मी बऱ्याचदा नकळत या आनंदात रमुन जात असे. त्यावेळी मला काळ वेळाचे भान रहात नसे. एखादी गोष्ट हातुन होण्यास विलंब लागत असे. आम्ही भावंडं जेव्हा कंदिलाच्या उजेडात अभ्यास करत असु त्यावेळी तो धुर ओकणारा कंदिल, माझा भाऊ व आमच्यावर पहारा करत असलेले माझे पिताश्री व मी हे जणू काही एकाच वस्तुचे बनले आहोत आणि ती वस्तु माझ्या ह्रदयात वसली आहे असे मला सारखे वाटे व मन त्या एकात्ममतेचा अनुभव घेण्यास रमुन जात असे. अशावेळी माझे अभ्यासात लक्ष नाही म्हणुन मी वडिलांच्या हातचा मार देखील भरपुर वेळेस खाल्ला आहे. असो......( क्रमशः )
                                                     ...............डी सिताराम