बुधवार, २५ मे, २०११

दत्ता म्हणे

हरि माता हरि पिता।
भवताप हरविता।।
घालु तयावरी भार।
करु प्रेम अनिवार।।
नाही तया मानपान।
प्रेमे घेतो उचलुन।।
दत्ता म्हणे ऐसा हरि।
अंतर्बाह्य वास करी।।

हरि स्मरा हरि स्मरा।
क्लेश जाती दिगंतरा।।
तुटे बंधन काळाचे।
नामघोष करा वाचे।।
अति आदरे पुजावे।
नाम प्रेमे घ्यावे घ्यावे।।
ठेऊ नका लाज मनी।
हरि स्मरा जनीवनी।।
दत्ता सांगतो सर्वांशी।
जाई शरण हरिशी।।

नको नको ज्ञान जळो अभिमान।
सोडी मी तु पण अवगुण।।
शुद्ध भक्ति प्रेम शुद्ध भोळा भाव।
आवडे सदैव ह्रषिकेशा।।
नामसंकीर्तन टाळ वीणा हाती।
संतुष्ट श्रीपती तयालागी।।
दत्ता म्हणे आम्ही प्रभुची लेकरे।
प्रेमाने आदरे स्मरतसे।।

स्थिरावली वृत्ती विठ्ठलाच्या पायी।
कवण्या उपायी नये मागे।।
नासे चित्तभ्रम नासे मी तु पण।
अनुभवे जाण निजवृत्ती।।
शब्द पांगुळले मन हे सरले।
नाही ना उरले अहंभावा।।
दत्ता देखे डोळा मूर्ति विश्वंभर।
पाही चराचर पांडुरंग।।

            .......  डीसिताराम