बुधवार, २८ सप्टेंबर, २०११

शस्त्र और शास्त्र के महारथी परशुराम.....

       

हमहितुम्हहिसरिबरिकस नाथा/ कहहुन कहां चरन कहंमाथा / राम मात्र लघु नाम हमारा । परसुसहित बड नाम तोहारा..। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम  को  नमन करते हों, उन शस्त्रधारी और शास्त्रज्ञ भगवान परशुराम की महिमा का वर्णन शब्दों की सीमा में संभव नहीं। वे योग, वेद और नीति में निष्णात थे, तंत्रकर्मतथा ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी पारंगत थे, यानी जीवन और अध्यात्म की हर विधा के महारथी।

विष्णु के छठे अवतार परशुराम पशुपति का तप कर परशु धारी बने और उन्होंने शस्त्र का प्रयोग कुप्रवृत्तियोंका दमन करने के लिए किया। कुछ लोग कहते हैं, परशुराम ने जाति विशेष का सदैव विरोध किया, लेकिन यह तार्किक सत्य नहीं। तथ्य तो यह है कि संहार और निर्माण, दोनों में कुशल परशुराम जाति नहीं, अपितु अवगुण विरोधी थे। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में जो खल दंड करहुंनहिंतोरा/भ्रष्ट होय श्रुति मारगमोरा की परंपरा का ही उन्होंने भलीभांति पालन किया। परशुराम ने ऋषियों के सम्मान की पुनस्र्थापना के लिए शस्त्र उठाए। उनका उद्देश्य जाति विशेष का विनाश करना नहीं था। यदि ऐसा होता, तो वे केवल हैहयवंश को समूल नष्ट न करते। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम की वास्तविकता जानने के बाद प्रभु का अभिनंदन किया, तो कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन करने में भी परशुराम ने संकोच नहीं किया। कर्ण को श्राप उन्होंने इसलिए नहीं दिया कि कुंतीपुत्रकिसी विशिष्ट जाति से संबंध रखते हैं, वरन् असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। कौशल्यापुत्र राम और देवकीनंदनकृष्ण से अगाध स्नेह रखने वाले परशुराम ने गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म पितामह) को न सिर्फ युद्धकला में प्रशिक्षित किया, बल्कि यह कहकर आशीष भी दी कि संसार में किसी गुरु को ऐसा शिष्य पुन:कभी प्राप्त न होगा!

पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को ही त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। इसी दिन, यानी वैशाख शुक्ल तृतीया को सरस्वती नदी के तट पर निवास करने वाले ऋषि जमदग्नितथा माता रेणुका के घर प्रदोषकालमें जन्मे थे परशुराम।

परशुराम के क्रोध की चर्चा बार-बार होती है, लेकिन आक्रोश के कारणों की खोज बहुत कम हुई है। परशुराम ने प्रतिकार स्वरूप हैहयवंशके कार्तवीर्यअर्जुन की वंश-बेल का 21बार विनाश किया था, क्योंकि कामधेनु गाय का हरण करने के लिए अर्जुनपुत्रोंने ऋषि जमदग्निकी हत्या कर दी थी। भगवान दत्तात्रेयकी कृपा से हजार भुजाएं प्राप्त करने वाला कार्तवीर्यअर्जुन दंभ से लबालब भरा था। उसके लिए विप्रवधजैसे खेल था, जिसका दंड परशुराम ने उसे दिया। ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि सहस्त्रबाहुने परशुराम के कुल का 21बार अपमान किया था। परशुराम के लिए पिता की हत्या का समाचार प्रलयातीतथा। उनके लिए ऋषि जमदग्निकेवल पिता ही नहीं, ईश्वर भी थे। इतिहास प्रमाण है कि परशुराम ने गंधर्वो के राजा चित्ररथपर आकर्षित हुई मां रेणुका का पिता का आदेश मिलने पर वध कर दिया था। जमदग्निने पितृ आज्ञा का विरोध कर रहे पुत्रों रुक्मवान,सुखेण,वसु तथा विश्वानसको जड होने का श्राप दिया, लेकिन बाद में परशुराम के अनुरोध पर उन्होंने दयावशपत्नी और पुत्रों को पुनर्जीवित कर दिया।

पशुपति भक्त परशुराम ने श्रीराम पर भी क्रोध इसलिए व्यक्त किया, क्योंकि अयोध्या नरेश ने शिव धनुष तोड दिया था। वाल्मीकि रामायण के बालकांडमें संदर्भ है कि भगवान परशुराम ने वैष्णव धनुष पर शर-संधान करने के लिए श्रीराम को कहा। जब वे इसमें सफल हुए, तब परशुराम ने भी समझ लिया कि विष्णु ने श्रीरामस्वरूपधारण किया है।

परशुराम के क्रोध का सामना तो गणपति को भी करना पडा था। मंगलमूर्तिने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया था, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार किया, जिससे गणेश का एक दांत नष्ट हो गया और वे एकदंतकहलाए।

अश्वत्थामा,हनुमान और विभीषण की भांति प्रभुस्वरूपपरशुराम के संबंध में भी यह बात मानी जाती है कि वे चिरजीवी हैं। श्रीमद्भागवत महापुराणमें वर्णित है, अश्वत्थामा बलिव्र्यासोहनूमांश्चविभीषण:। कृप: परशुरामश्चसप्तैतेचिरजीविन:।

ऐसे समय में, जब शास्त्र की महिमा को पुन:मान्यता दिलाने की आवश्यकता है और शस्त्र का निरर्थक प्रयोग बढ चला है, भगवान परशुराम से प्रेरणा लेकर संतुलन बनाने की आवश्यकता है, ताकि मानव मात्र का कल्याण हो सके और मानवता त्राहि-त्राहि न करे।

संत कबीर-रचा वंचितों का वेद....

      

कबीर भारतीय चिंतन-परंपरा के पुरस्कर्ताइन अर्थो में हैं, क्योंकि वे मृत्यु का सहर्ष स्वागत करते हैं। आत्म, परम-आत्म और अध्यात्म में कबीर का इतना अगाध विश्वास है कि वे दैहिक मृत्यु को भी नगण्य मानते हैं। उनका ऐसा विश्वास इसलिए भी है, क्योंकि दैहिक मृत्यु के बाद पूर्ण एवं परम आत्मा से मिलन संभव होगा :

जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद।

कब मरिहोंकब पायहुं,पूरन परमानंद॥

बिना मृत्यु के परमात्मा से मिलन संभव नहीं है। यहां मरने का एक अर्थ अहंकार का मरना, दंभ को, मैं पन को मारना भी है।

कबीर ने काल और महाकाल के भय से मानव को मुक्त कर जीवन की महत्ता सिद्ध की है। निर्धन, दमित, उपेक्षित, दलित व्यक्ति को भी कबीर धनवान नहीं, बल्कि आत्मवानबनाते हैं और वह स्वयं को धनवानों से भी अधिक धनवान तथा महिमावान समझता है। सामाजिक गैर-बराबरी, जाति-पांति की विषमता से लडने की आंतरिक, वास्तविक क्षमताओं से कबीर व्यक्ति को जोडते हैं। उसमें आत्मा, आत्म-शक्ति जगाते हैं।

जीवन के प्रति अगाध विश्वासों से कबीर हमें भर देते हैं, ताकि अपसंस्कृति एवं अमानवीयताके विपरीत व्यक्ति अध्यात्म सत्ता से जुडे और आत्मीय-मानवीय विश्व का सु-नागरिक सिद्ध हो।

सच है-परमात्मा ही पूर्ण है। योग-ध्यान-आत्मा द्वारा उससे संयुक्त होकर ही शांति, आनंद और आत्म-तुष्टि का अनुभव किया जा सकता है। यही कारण है कि कबीर उस पूर्ण, परमात्मा से जुडने के मार्ग दिखाते हैं। परमात्मा के पूर्ण होने की वैदिक अवधारणा के आधार पर वे कहते हैं :

पूरे सोंपरिचय भया,सब दु:ख मेल्यादूरी।

निर्मल कीन्हींआत्मा, ताथैंसदा हुजूरी॥

सब प्रकार की हिंसा, हत्या, दु:ख-क्लेश से मुक्त होने और परमात्मा के हर समय, हर कहीं खुले दर्शन करने का एक ही मार्ग है-आत्मा की निर्मलता। निर्मल आत्मा से परमात्मा तक पहुंचाने का मार्ग दिखाने वाले मसीहा हैं कबीर।

कबीर विद्वेषियोंने उन पर कई आक्षेप किए हैं। उन्हें वेद-विरोधी व नारी निंदक तक कहा गया है, जबकि ये दोनों बातें व्यर्थ भ्रमित करने वाली हैं। वेद का अर्थ ज्ञान है, आत्मिक-आध्यात्मिक ज्ञान है, जो वेदनात्मकताएवं संवेदनात्मकताका आधार है। कबीर ज्ञानमार्गीमाने जाते हैं। उनका मार्ग भक्ति व कर्म से अधिक एवं मुखर ज्ञान का मार्ग है। कबीर यदि ज्ञान (वेद) से भी विरोध रखने वाले माने जाएंगे, तब उनके चिंतन का और कौन सा आधार है? कबीर की एक साखी संतों में प्रसिद्ध है।

वे कहते हैं :

वेद हमारा भेद है, हम वेदन के माहिं।

जिन वेदन में हम रहें, वेदौंजानतनाहिं॥

कह सकते हैं कि कबीर ने वंचितों का वेद रचा। नारी और शूद्र्र को वेद पाठ से वंचित कर दिए जाने पर कबीर ने स्वयं अपना वेद रचा, जो कि वंचकों के वेद से भिन्न है और इस अपने वेद में वे लोग स्वयं भी स्थित हैं। उनकी पीडाएं, आकांक्षाएं, आह्लाद-विषाद भी इसमें समाहित हैं।

इसी भांति नारी-निंदक मानी जाने वाली साखियोंको विद्वानों ने ठीक से अब तक समझने का प्रयास नहीं किया। जो कुछ पूर्व विद्वानों ने मान लिया, उसी को बडे-बडे विश्वविद्यालयों के स्व-नामधन्य विभागाध्यक्ष तक दोहराते जा रहे हैं। कबीर ग्रंथावली में कामी नर को अंग के अंतर्गत संकलित हैं उक्त साखियां,जो स्पष्ट ही कामी नर को संबोधित हैं, नारी को नहीं। पुरुष सत्तात्मकसमाज के मूल्य-पक्षधर नारी संबंधी कबीर के विचारों को अनदेखा क्यों कर रहे हैं? यही नहीं, वे तो कंचन एवं कामिनी के प्रति कहे गए कबीर के शब्दों को सारी नारी जाति पर आरोपित कर रहे हैं।

कामिनी नारी यदि लपटों-भरी आग है, तो कामी नर को उससे बचने की हिदायत कबीर दे रहे हैं, नहीं तो-अन्यत्र साखियोंमें कबीर वीर व सती नारी के प्रति खुले कंठ से पक्षधरता व्यक्त करते हैं। वे इस बात पर भी व्यंग्य करते हैं कि जहां समाज सती नारी को पूरी देह ढकने के लिए उपयुक्त वस्त्र प्रदान नहीं करता, वहीं वेश्या खासा पहनती है। ऐसे में यह प्रमाणित हो जाता है कि सती, साधु, सत्य और ज्ञान के पक्षधर संत कबीर ने ज्ञान को परमात्मा के रूप में स्थापित किया है।

सबकी प्रगति में अपनी उन्नति .....


जहानरसीमेहता, सरदार पटेल, महात्मा गांधी का जन्म हुआ, उसी गुजरात में 1825ई. को टंकारा ग्राम में ब्राह्मणकुल में कर्षण तिवारी और यशोदा बाई के आंगन में एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम मूलशंकररखा गया। एक शैव भक्त जमींदार परिवार में जन्म लेने वाले मूलशंकरके बचपन में कई घटनाएं हुईं। शिवरात्रि को मूर्तिपूजा से अनास्था, चाचा और बहन की मौत ने इनकी जिंदगी पर गहरा असर डाला। वे दयानंद के रूप में संन्यासी बन गए। गुरु विरजानदसे उन्होंने व्याकरण, योग, धर्म-अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त किया। मथुरा में शिक्षा पूरी कर दयानंद का सारा जीवन वेद, दर्शन, धर्म, भाषा, देश, स्वतंत्रता, समाज की बदतर हालात को सुधारने, समाज में फैले अंधविश्वासों, पाखंडोंऔर बुराइयों को खत्म करने में समर्पित हो गया।

महर्षि दयानंद के समय में शिक्षा, दलितों और स्त्रियों की हालात अच्छी नहीं थी। बाल विवाह, सती प्रथा, जन्मगत जाति-पाति और ऊंच-नीच के भेदभाव से समाज बिखर रहा था। धर्म, अध्यात्म, योग और कर्मकंाडके नाम पर तंत्र-मंत्र, जादू-टोने और भूत-प्रेत के टोटके किए जाते थे। भारत की धरती अंग्रेजी दासताकी जंजीरों में जकडी हुई थी। ऐसे में स्वामी दयानंद ने देश व समाज में छाए अंधकार को खत्म कर देश-समाज को नई दिशा दी।

दयानंद अंग्रेजी पराधीनता और समाज की दयनीय दशा को सुधारने के लिए योद्धा की तरह मुकाबला कर रहे थे, वहीं किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की बिगडी हुई दशा को उबारने में लगे रहे। 1857के पहले स्वाधीनता संग्राम से लेकर महाप्रयाण 1883तक वे अंग्रेजी शासन से छुटकारा दिलाने और आजादी के रणबाकुरोंको स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करने में लगे रहे। विभिन्न संप्रदायों के महंत, अंग्रेजों के पिट्ठू राजा और नवाब इनके विरोधी बन गए थे। कहा जाता है कि उन्हेकई बार जहर देने का प्रयास भी किया गया।

1875में दयानंद ने मुंबई की काकडबाडीमें आर्य समाज की स्थापना की, जिसका मकसद मानवता का कल्याण था। उन्होंने आर्य समाज के नियम में कहा कि किसी भी इंसान को अपने विकास से ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए, बल्कि सबकी प्रगति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश सहित चालीस पुस्तकें लिखकर समाज और देश को नई दिशा दी।

संगीत के शिखर

     
सम्राट अकबर ने एक बार तानसेनसे कहा, तुम्हारे जैसा गायक इस पृथ्वी पर दूसरा नहींहै,ना ही कभी होगा। तानसेनने जवाब दिया, हुजूर, मैं तो अपने गुरु स्वामी हरिदासके सामने तो कण-मात्र भी नहीं। अकबर बोले, अपने गुरु को लेकर आओ, मैं उनका संगीत सुनना चाहता हूं। मैं मुंहमांगा धन दूंगा। तानसेनने कहा, हुजूर, न तो उन्हें संगीत सुनाने को राजी किया जा सकता है, न कुछ लेने को। एक ही उपाय है, जब वे गा रहे हों, तब आप छिपकर सुन लें..। अकबर तुरंत तैयार हो गए। कडकडाती ठंडी रात में अकबर हरिदासकी झोपडी के बाहर वृक्ष के पीछे छिप गए। तडके तीन बजे स्वामी हरिदासने गाना शुरू किया। गाना खत्म होने पर अकबर की आंखों में आंसू थे।

हरिदासपेड-पौधों और पशु-पक्षियों को संगीत सुनाया करते थे। मान्यता है कि जब वे भक्ति-पद गाते, तो राधा-कृष्ण रासलीला के लिए आ जाते थे।

कोलग्राम,अलीगढ में जन्मे हरिदासजी संन्यास-दीक्षा लेकर वृंदावन आ गए थे। निधिवनमें रहकर वे ठाकुर जी की सेवा करने लगे। बाद में सेवा-कार्य अपने अनुज को सौंप कर वे नहीं लौटे। काव्य और शास्त्रीय संगीत के महान आचार्य स्वामी हरिदासने सखी संप्रदाय की नींव रखी थी। उन्होंने राधा-कृष्ण की भक्ति में पगाकाव्य लिखा। उन्हें शास्त्रीय संगीत में ठुमरी का प्रवर्तक माना जाता है। केलिमालएवं अष्टदशसिद्धांत उनके ग्रंथ हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन के द्वैत, अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत आदि मतों के सम्मिलनसे इच्छाद्वैतसिद्धांत का प्रतिपादन किया।