बुधवार, २८ सप्टेंबर, २०११

संगीत के शिखर

     
सम्राट अकबर ने एक बार तानसेनसे कहा, तुम्हारे जैसा गायक इस पृथ्वी पर दूसरा नहींहै,ना ही कभी होगा। तानसेनने जवाब दिया, हुजूर, मैं तो अपने गुरु स्वामी हरिदासके सामने तो कण-मात्र भी नहीं। अकबर बोले, अपने गुरु को लेकर आओ, मैं उनका संगीत सुनना चाहता हूं। मैं मुंहमांगा धन दूंगा। तानसेनने कहा, हुजूर, न तो उन्हें संगीत सुनाने को राजी किया जा सकता है, न कुछ लेने को। एक ही उपाय है, जब वे गा रहे हों, तब आप छिपकर सुन लें..। अकबर तुरंत तैयार हो गए। कडकडाती ठंडी रात में अकबर हरिदासकी झोपडी के बाहर वृक्ष के पीछे छिप गए। तडके तीन बजे स्वामी हरिदासने गाना शुरू किया। गाना खत्म होने पर अकबर की आंखों में आंसू थे।

हरिदासपेड-पौधों और पशु-पक्षियों को संगीत सुनाया करते थे। मान्यता है कि जब वे भक्ति-पद गाते, तो राधा-कृष्ण रासलीला के लिए आ जाते थे।

कोलग्राम,अलीगढ में जन्मे हरिदासजी संन्यास-दीक्षा लेकर वृंदावन आ गए थे। निधिवनमें रहकर वे ठाकुर जी की सेवा करने लगे। बाद में सेवा-कार्य अपने अनुज को सौंप कर वे नहीं लौटे। काव्य और शास्त्रीय संगीत के महान आचार्य स्वामी हरिदासने सखी संप्रदाय की नींव रखी थी। उन्होंने राधा-कृष्ण की भक्ति में पगाकाव्य लिखा। उन्हें शास्त्रीय संगीत में ठुमरी का प्रवर्तक माना जाता है। केलिमालएवं अष्टदशसिद्धांत उनके ग्रंथ हैं। उन्होंने भारतीय दर्शन के द्वैत, अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत आदि मतों के सम्मिलनसे इच्छाद्वैतसिद्धांत का प्रतिपादन किया।

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत: